शारदा लिपि-
आज एक ऐसी लिपि के बारे में बात कर रहे हैं जिसके माध्यम से हम अपनी हजारों वर्षों की परम्परा को आज भी जीवित देख पा रहे हैं। हालांकि यह आज भी हमें ब्राह्मी जैसी अनजानी लिपि नहीं प्रतीत होती है क्योंकि जिन ग्रन्थों का हम अध्ययन कर रहे हैं वे सभी इसी लिपि से अनुवादित किये हुए हैं। पुनरपि देवनागरी के प्रभाव ने इस लिपि को संकुचित ही नहीं किया बल्कि इसके जानने वालो की गिनती उँगली पर लाकर रख दी। इस लिपि को हम शारदा नाम से जानते है।
परिचय-
शारदा लिपि का अविष्कार शारदा प्रदेश (काश्मीर) में होने से इसका नाम शारदा है। इस बात की अधिकांश विद्वानों ने पुष्टि की है। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, ग्रियर्सन, डॉ. ब्यूह्लर, डॉ. एम. ए. स्टोन आदि ने अपने ग्रन्थों में प्रदेशवश तथा देवी के प्रभाव के कारण इस लिपि का शारदा नाम स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त एक अन्य विद्वान् इल्मिसिलि है जो १९ वीं सदी में काश्मीर में आये थे। उनका मानना है किसी शारदानन्दन नामक व्यक्ति ने काश्मीरी भाषा के लिए नवीन लिपि का अविष्कार किया था जिसे शारदा के नाम से जाना गया। परन्तु यह तथ्यपूर्ण नहीं है। अतः हम शारदा क्षेत्र के नाम के आधार पर लिपि का नाम स्वीकार करेंगे।
शारदा लिपि का सीधा सम्बन्ध देवी से होने की कारण इसका प्रयोग पूजा-पाठ में प्रायः होने लगा था। काश्मीर में आज भी तांत्रिक प्रक्रिया में देवनागरी को महत्त्व नहीं मिला है। तंत्र साधना की एक प्रक्रिया मातृका है उससे शारदालिपि का अन्तःसम्बन्ध है। अतः इसे ’मातृका’ भी कहा जाने लगा था। अलबेरुनी ने भी अपने लेखों में शारदा को ’सिद्ध मातृका’ के नाम से सम्बोधित किया है। बाली तथा जापान आदि देशों की तांत्रिक व्यवस्था में प्रयोग की जाने वाली भाषा को भी ’सिद्धम्’ के नाम से जाना जाता है।
शारदा लिपि की उत्पत्ति-
शारदा लिपि के उत्पत्ति काल की बात करें तो यह बताना अत्यन्त कठीन होगा कि इसका उद्भव कब हुआ। पुनरपि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों ने इस लिपि का काल तीसरी सदी विवाद रहित स्वीकार किया है। मार्तण्ड में प्राप्त अभिलेख जो ९वीं सदी का है उससे में शारदा का उत्कृष्टरूप प्राप्त होता है। यह अभिलेख राजा अवन्तिवर्मा के शासन काल का है जिनका समय ८५५ ई. प. का है। अतः यह सम्भावना है कि इस काल से पूर्व ही शारदा अपने उत्कृष्ट रूप में आ चुकी थी। काश्मीर से ऐसे अनेक ग्रन्थ मिले है जिनका अनुमान लगाना कठीन है कि इनकी रचना किस काल में हुई वे सभी लगभग शारदा में ही लिखे हैं। कर्नल बावर आदि अनेक विद्वान् हुए जिनको शारदा के ग्रन्थ काफी मात्रा में प्राप्त हुये थे उन सबका मानना है कि यह लिपि हजारों वर्षों से प्रचलित है।
डॉ. श्री नाथ तिक्कू अपनी पुस्तक “शारदा लिपि दीपिका” में इस बात को उद्धृत करते हैं कि शारदा का व्यवहार ईसा से पहले दूसरी सदी में अवश्य रहा था। इसका प्रमाण देते हुए लिखते हैं कि महाकवि बिल्हण के जन्मस्थान “खुनमोह” नामक गाँव में बावडी की दीवार पर एक लेख लिखा है जो शारदा में है। उस लेख में काश्मीर में दुर्भिक्ष होने की चर्चा की है। डॉ. तिक्कू का मानना है कि राजतरङ्गिणी के अनुसार राजा तिञ्जुन के शासन काल में काश्मीर में दुर्भिक्ष् रहा था जिसका शासन काल ई. पू. ८८-१५५ तक था। अतः हम यह कह सकते है कि शारदा का समय निश्चित् रूप से ईसा के पूर्व ही था।
किस लिपि से उद्भव ?
विद्वानों ने शारदा को प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी से उत्पन्न माना है। विद्वानों के अनुसार इसका व्यवहार ब्राह्मी के साथ निरन्तर होता रहा है। शारदा को संस्कृत भाषा के लिए सबसे उपयोगी माना जाता रहा है। अतः यह सम्भव है कि संस्कृत तथा तांत्रिक प्रक्रिया के लिए इस लिपि का उद्भव किया हो। कुछ एक आचार्यों का मानना है कि इस लिपि का अविष्कार शैवदर्शन के प्रभाव से हुआ है। काश्मीर शैवदर्शन का सम्बन्ध तन्त्रविद्या से निरन्तर रहा है जहाँ एक मात्र शब्द ही उस प्रक्रिया का बोध कराता है। इसी बात की चर्चा शंकराचार्य भी अपनी सौन्दर्यलहरी में ’ई’ को इंगित करते हुए करते है। तन्त्र परम्परा में शारदा के “ई” से निष्कला काम कला का रूप वर्णित किया जाता है।
शारदा का क्षेत्र-
ऊपर की गई की चर्चा से यह स्पष्ट है कि इस लिपि का प्रारम्भ एक क्षेत्र विशेष से हुआ था जिसके आधार पर इसका नामकरण भी हुआ। परन्तु इस लिपि की सरलता तथा वैज्ञानिकता ने इसे एक क्षेत्र में सीमित नहीं रहने दिया। शारदा का प्रचार सम्पूर्ण पहाडी क्षेत्र में अवश्य ही था साथ में उत्तरभारत के मैदानों में भी था। पंजाब, हिमाचल तथा तिब्बत इसके प्रमुख गढ बन गए थे। उत्तर भारत के अतिरिक्त दक्षिण आदि में भी शारदा को सिखाया जाता था क्योंकि ९-१० वीं सदी से ही दक्षिण प्रान्त के लोग काश्मीर में अध्ययन के लिये आते रहे हैं। अतः यह निश्वित् है कि वे शारदा लिपि को जानते होंगे।
शारदा की पुत्रियाँ-
जैसे संस्कृत की हिन्दी आदि भाषाएँ पुत्री है वैसे ही शारदा ने भी अनेक लिपियों को उत्पन्न करने में अपनी भूमिका निभाई है। शारदा से उत्पन्न होने वाली लिपियों में गुरुमुखी, टाकरी तथा डोंगरी मुख्य है। समय के साथ परिवर्तन होने के कारण गुरुमुखी लिपि आदि का निरन्तर विस्तार होता गया तथा शारदा का संकुचन होता गया। शायद यही परिवर्तन का नियम है।
शारदा लिपि में उपलब्ध सामग्री-
शारदा लिपि में उपलब्ध सामग्री की संख्या अनगिनत है। संस्कृत के प्रायः ग्रन्थ शारदा में उपलब्ध है। आलंकारिक ग्रन्थों का प्रणयन ही शारदा में हुआ है। पुनरपि ग्रन्थों को छोडकर कुछ उदाहरण देख सकते है जहाँ शारदा लिखी हुई है। 1922 में किए गये मार्तण्ड मन्दिर के उत्खनन में एक शिला पट्टिका प्राप्त हुई थी जिसमें शारदा में लिखा हुआ है। काश्मीर की महारानी दीद्दा का एक शिलालेख पंजाब से पाया है जिसमें शारदा लिखी हुई है। इनके काल के सिक्कें भी है जिन पर शारदा टंकित है। तोरमाण का ऐरण प्रतिमा लेख में भी ब्राह्मी के साथ शारदा लिखी हुई है। ११८१-१२१९ में काश्मीर में ’जस्सक’ का शासन था उसके काल की एक कांस्य प्रतिमा पर भी नागरी के साथ शारदा लिखी हुई प्राप्त होती है।
अतः इस प्रकार अनेक लेख प्राप्त है जो शारदा की प्राचीनता तथा व्यापकता को सिद्ध करते हैं।
शारदा को सीखना कोई थोपने जैसा काम नहीं बल्कि हमारा मौलिक कर्त्तव्य है कि हम अपनी परम्परा के संरक्षण हेतु इसे सीखें। यद्यपि आज के युग में यह असंभव सा प्रतीत होता कि सभी भारतीय नागरिक शारदा को सीख पाये परन्तु संस्कृत के अध्येताओं को इसे अवश्य सीखना चाहिये। तभी हम संस्कृत में निबद्ध ग्रन्थों का मर्म समझ सकते हैं।
यहाँ पर कुछ पुस्तकों के नाम तथा लिंक है जहाँ से आप शारदा को विस्तृत रूप में समझ सकते हैं-
1. शारदा लिपि दीपिका- डॉ, श्री नाथ तिक्कू, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली.
2. Sharada script primer- published by Dr. Uday kakroo.
3. शारदा अक्षर ज्ञान- पं. ओमनाथ शास्त्री, पं. प्रेमनाथ शास्त्री सांस्कृतिक शोध संस्थान, जम्मू.
4. https://www.sanskritfromhome.in/course/learn-sharada-lipi
5. https://www.youtube.com/watch?v=wTereJFLO1o
6. https://youtu.be/IHinCbSKP70
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3 comments
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