महाभाष्य का पस्पशाह्निक : एक अध्ययन
महाभाष्य का सामान्य परिचय:- पतञ्जलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखा है, जिसे व्याकरण महाभाष्य का नाम दिया गया है। व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग १५०० हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते बल्कि केवल व्याकरणमहाभाष्य में पतंजलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही उपलब्ध हैं। संस्कृत के तीन महान् वैयाकरणों में पतंजलि भी हैं। महाभाष्य में शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त तीनों की चर्चा हुई है।
महाभाष्य का अध्ययन करते हुये इसमें विभिन्न पक्षों को देख सकते है। महाभाष्य का प्रथमाह्निक महाभाष्य की भूमिका है अपितु यह भी कह सकते है कि सम्पूर्ण व्याकरण की यह पस्पशाह्निक ही भूमिका है। इस आह्निक में महाभाष्यकार ने अपने सम्पूर्ण ग्रन्थ को सूत्ररूप में समेटा हुआ है। इसका अध्ययन मुख्यतः दो प्रकार से कर सकते है। १. पस्पशाह्निक का बाह्य-अध्ययन तथा २. पस्पशाह्निक का आन्तरिक-अध्ययन।
१. पस्पशाह्निक का बाह्याध्ययन।
१.१ महाभाष्य के लेखक।
१.२ महाभाष्य का काल।
१.३ महाभाष्य के टीकाग्रन्थ।
१.५ महाभाष्य की रचना शैली।
१.६ महाभाष्य की भाषा।
२. पस्पशाह्निक का आन्तरिकाध्ययन।
२.१ महाभाष्य का नामकरण।
२.२ प्रथमाह्निक का नामकरण।
२.३ मंगलाचरण की विधा।
२.४ महाभाष्य का पाणीनि से सम्बन्ध।
२.५ महाभाष्य का कात्यायन से सम्बन्ध।
२.६ आक्षेप-समाधान।
२.७ व्याकरणाध्ययन के प्रयोजन।
२.८ पस्पशाह्निक के मुख्य सिद्धान्त।
२.९ वार्तिकों का प्रयोग।
पस्पशाह्निक का बाह्याध्ययन
१.१ महाभाष्य के लेखक- महाभाष्य के रचनाकार आचार्य पतञ्जलि है। जिनकी गिनती व्याकरण परम्परा के विशिष्ट आचार्यों में आती है। पतंजलि के अन्य नाम भी हैं, जैसे-गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, चूर्णिकार, फणिभुत, शेषाहि, शेषराज और पदकार। रामचन्द्र दीक्षित ने 'पंतजलिचरित' नामक उनका चरित्र लिखा है, जिसमें पतंजलि को शेषनाग का अवतार मानकर, तत्सम्बन्धी आख्यायिका दी है।
१.२ महाभाष्य का काल- इसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की मानी जाती है। महाभाष्यकार "पतंजलि" का समय असंदिग्ध रूप में ज्ञात है। पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में पतंजलि वर्तमान थे। महाभाष्य के निश्चित साक्ष्य के आधार पर विजयोपरांत पुष्यमित्र के श्रौत (अश्वमेध यज्ञ) में संभवत: पतंजलि पुरोहित थे। यह (इह पुष्यमित्रं याजयाम:) महाभाष्य से सिद्ध है। साकेत और माध्यमिका पर यवनों के आक्रमणकाल में पतंजलि विद्यमान थे। अत: महाभाष्य और महाभाष्यकार पतंजलि - दोनों का समय ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी निश्चित है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. में मौर्यों के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग - मौर्यवंशी बृहद्रथ को मारकार गद्दी पर बैठे थे। नाना पंडितों के विचार से 200 ई.पू. से लेकार 140 ई.पू. तक महाभाष्य की रचना का मान्य काल है।
१.३ महाभाष्य के टीकाग्रन्थ- महाभाष्य ग्रन्थ पर अनेक आचार्यों ने टीका लिखि है जिनमें पतञ्जलि के भावों के सिद्धान्तों के साथ पूर्ववर्ती आचार्यों के भी मत स्पष्ट किये गये है- भर्तृहरि ने इस पर महाभाष्यदीपिका टीका लिखी थी पर उसका अधिकांश भाग अनुपलब्ध है। कैय्यट की "प्रदीप" नामक टीका है। पुरुषोत्तमदेवकृत महाभाष्यलघुवृत्ति, शेषनारायण की सूक्तिरत्नाकर आदि अनेक महाभाष्य पर टीका ग्रन्थ लिखे गये है। और सम्भवतः आगे भी इसी प्रकार काम चलता रहेगा।
१.४ महाभाष्य की संरचना- महाभाष्यकार ने इस ग्रन्थ को संरचना से भी अन्य ग्रन्थों से भिन्न प्रस्तुत किया है। पतञ्जलि ने इसमें पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष के मतों को शंका-समाधान के रूप में प्रस्तुत किया है। शिक्षा-मनोवैज्ञानिक भी अध्ययन की इस संरचना को महत्त्व देते है। तथा भारतीय मनोवैज्ञानिक तो इस परम्परा का जनक पतञ्जलि को मान बैठे है, हालांकि यह नितान्त सत्य नहीं है क्योंकि पतञ्जलि से पूर्व भी शंका-समाधान से भारत में अध्ययन चलता रहा है। हाँ इतना अवश्य कह सकते है कि पतञ्जलि ने इसको विस्तार रूप दिया है जो प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में अनुपलब्ध है।
१.५ महाभाष्य की भाषा- महाभाष्य की भाषा सरल और सुबोध है। अनेक शास्त्र विषयों की चर्चा विचारों की गहराई इत्यादि इस ग्रन्थ की अनेक विशेषताएं हैं। प्रश्नोत्तरी पद्धति के कारण इस ग्रन्थ में की गई शास्त्रचर्चा जीवन्त प्रतीत होती है। कहीं थोड़ा हास्य, कहीं व्यंग्य, कहीं प्राचीन दृष्टान्त, कहीं कल्पित कथा होने से इस ग्रन्थ का स्वरूप बहुरूपिया जैसा प्रतीत होता है।
१.६ महाभाष्य की रचना शैली- महाभाष्य की रचनाशैली अत्यन्त सरल, सहज और प्रवाहयुक्त है। शास्त्रीय ग्रन्थ होने के कारण महाभाष्य में पारिभाषिक और शास्त्रीय शब्दों का आना स्वाभाविक ही था, परन्तु महाभाष्यकार ने शास्त्रीय शब्दावली के साथ-साथ लोकव्यवहार की भाषा और मुहावरों का प्रयोग कर अपने ग्रन्थ को दुरूह होने से बचा लिया है। जहाँ विषय गम्भीर है, वहाँ महाभाष्यकार ने बीच-बीच में विनोदपूर्ण वाक्य डालकर संवादमयी शैली का प्रयोग और लौकिक दृष्टान्तों का समावेश कर प्रसंग को शुष्क और नीरस होने से बचा लिया है। महाभाष्य को सरस और आकर्षक बनाने में उनकी भाषा का बहुत योगदान है। उसमें उपमान, न्याय, दृष्टान्त और सूक्तियाँ भी कम मनोरम नहीं हैं। महाभाष्य में उपमान और दृष्टान्तों का कुछ इस ढ़ंग से प्रयोग किया गया है कि पाठक बिना तर्क के वक्ता की बात स्वीकार करने को बाध्य हो जाता है। भाष्य में प्रयुक्त सूक्तियाँ और कहावतें जीवन के वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। भाष्य में प्रयुक्त अनेक शब्द संस्कृत शब्दपौराणिक कोश की अमूल्य निधि हैं। पतंजलि ने महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय सिद्धान्तों की विवेचना करते समय यह ध्यान रखा कि वे सिद्धान्त लोगों को सरलता से समझ में आ सकें। इसके लिये उन्होंने लोक-व्यवहार की सहायता ली। प्रत्यय से स्थान को निश्चित करने के लिये वे गाय के बछड़े का उदाहरण देते हुए कहते हैं, कि यदि प्रत्यय का स्थान निश्चित नहीं होगा, तो जैसे बछड़ा गाय के कभी आगे व कभी पीछे और कभी उसके बराबर चलने लगता है, ऐसी ही स्थिति प्रत्ययों की हो जायेगी। इस प्रकार पतंजलि ने पाणिनीय व्याकरण को न केवल सर्वजन-सुलभ बनाया, अपितु उसमें अपने भौतिक विचारों का समावेश कर उसे दर्शन का रूप भी प्रदान कर दिया। महाभाष्य का आरम्भ ही शब्द की परिभाषा से होता है। शब्द का यह विवाद वैयाकरणों का प्राचीन विवाद था। पाणिनि से पूर्व आचार्य शब्द के नित्यत्व और कार्यत्व पक्ष को मानते थे।
॥पस्पशाह्निक का आन्तरिकाध्ययन॥
२.१ महाभाष्य का नामकरण- महाभाष्य का पूर्ण नाम व्याकरण महाभाष्य है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेति शब्दज्ञानजनकं व्याकरणम्, तच्च सूत्रम्। भाष्यते शब्दशास्त्रं येन इति भाष्यम्। महच्च तद् भाष्यम्-महाभाष्यम्। व्याकरणस्य महाभाष्यम् व्याकरणमहाभाष्यम्। जिससे साधु शब्द का ज्ञान हो उसी का नाम व्याकरण है और उस व्याकरण के सूत्रार्थों का विवेचन करते समय अपने मतों का भी ननु-न च से विवेचन करना भाष्य है। कहा भी है-
सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वर्णैः सूत्रानुसारिभिः।
स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः॥
२.२ प्रथमाह्निक का नामकरण- महाभाष्य में पतञ्जलि ने ८४ व ८५ आह्निक लिखे है। आह्निक का तात्पर्य एक दिन में पूर्ण होने वाला । यहाँ ८५ आह्निक आर्थात् ८५ दिन में व्याकरणमहाभाष्य का अध्ययन पूर्ण हो जाता है। इन ८५ आह्निकों में प्रथम आह्निक महाभाष्य की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रथम आह्निक का नाम पस्पशाह्निक है। पस्पशाह्निक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- “स्पश् बाधनस्पर्शनयोः (भ्वादि), तत्र स्पर्शनं ग्रन्थनम्। तस्माद् यङ्लुकि कर्तरि पचाद्यच् “पस्पश” इति। कोशकारों ने पस्पश का अर्थ- प्रस्तावना, आमुख, भूमिका आदि किया है आह्ना निर्वृत्तम् = आह्निकम् अर्थात् एक दिन में जितना पाठ पढाया जाय उस पाठ को आह्निक कहते है। इस प्रकार पस्पश तथा आह्निक मिलकर पस्पशाह्निक शब्द बना है जिसका अर्थ है व्याकरणमहाभाष्य की एक दिन में पूर्ण होने वाली भूमिका।
२.३ मंगलाचरण की विधा- भारतीयज्ञान परम्परा में मंगलाचरण का बहुत महत्त्व है। पतञ्जलि ने भी महाभाष्य में इस परम्परा का निर्वहण किया है। पतञ्जलि अपने महाभाष्य को “अथ शब्दानुशानम्” इस मंगल पद से प्रारम्भ करते है। यहाँ इस सूत्र में आचार्यों द्वारा “अथ” शब्द को मंगलवाची शब्द माना है। कोश के अनुसार अथ शब्द पाँच अर्थों में प्रयुक्त होता है- मंगल, आनन्तर्य, आरम्भ, प्रश्न तथा कार्त्स्न्य। मंगलाऽनन्तरऽऽरम्भ-प्रश्न-कार्त्स्येष्वथो अथ इति।
आचार्य शंकर ने भी अथ को मंगलवाची मानते हुए कहा है- अर्थान्तरप्रयुक्त एव ह्यथशब्दः श्रुत्या मङ्गलप्रयोजनो भवति। महाभाष्यकार ने अथ शब्द को मुख्यतः अधिकार अर्थ में प्रयुक्त किया है- अथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थः प्रयुज्यते। परन्तु यहाँ मंगल अर्थ भी सार्थक है तथा पतञ्जलि ने मंगलाचरण के प्रतिपादन को ध्यान में रखते हुये अथ शब्द का प्रयोग किया है।
२.४ महाभाष्य का पाणीनि से सम्बन्ध- महाभाष्यकार पाणिनि की परम्परा का निर्वहण करते है। आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में एक क्रम रूप से व्याकरण को अंकित किया है, महाभाष्यकार उसी को आधार बनाकर भाष्य लिखते है महाभाष्यकार को अन्य किसी का मत स्वीकार्य था या नहीं यह एक अलग विषय है परन्तु महाभाष्यकार पाणिनि का पूर्णरूप से अनुकरण करते थे। महभाष्यकार ने अष्टाध्यायी के माहेश्वरसूत्र को उद्धृत करके ही यह सिद्ध कर दिया है कि पतञ्जलि का मूल उद्देश्य ही पाणिनि को व्याख्यायित करना था। पाणिनि के विषय में महाभाष्य में कई स्थानों पर प्रशंसा करते है।
अतः पाणिनिकृत अष्टाध्यायी पर ही महाभाष्यकार ने महाभाष्य लिखा होने से उनका तो गहरासम्बन्ध अवश्य ही रहा होगा।
२.५ महाभाष्य का कात्यायन से सम्बन्ध- वार्तिककार कात्यायन व्याकरण परम्परा के त्रिमुनि परम्परा में मध्यस्थता का कार्य करते है। पाणिनि ने पाणिनि सूत्रों पर वार्तिक ग्रन्थ लिखा है। यद्यपि महाभाष्य में प्रधानतया कात्यायन के वार्तिकों का उल्लेख है, तथापि उसमें अन्य वार्तिककारों के भी वार्तिक उद्धृत है। कुछ वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य से विदित हो जाते है। अनेक वार्तिकों के रचयिताओं के नाम महाभाष्य में नहीं लिखे गये हैं। इन सब वार्तिकों के अतिरिक्त महाभाष्य में ऐसे वचनों का भी संग्रह है जो वार्तिक प्रतीत होते है परन्तु वार्तिक नहीं है।
महाभाष्य में वार्तिकों के उद्धृत होने के उपरान्त भी वार्तिककार ने अपने ग्रन्थ में कितनी वार्तिक लिखि इसकी निश्चित संख्या का ज्ञान नहीं हो पाता है परन्तु आधुनिक वैयाकरण सिद्धे शब्दार्थ सम्बन्धे को कात्यायन का प्रथम वार्तिक समझते हैं। क्योंकि वे महाभाष्य के वचन को प्रमाण मानते है। अतः यहाँ हम देखते है कि कात्यायन के वार्तिक को पाणिनि ने महत्व देते हुए उनको ही महाभाष्य में व्याख्यायित किया है। महाभाष्यकार ने पाणिनि तथा कात्यायन में कुछ स्थानों पर भेद है ऐसा व्याकरण परम्परा के भ्रम का खण्डन किया है तथा यह सिद्ध किया है कि कात्यायन पाणिनि का अनुकरण करते है उनके मध्य कोई भी विरोध नहीं हैं।
२.६ प्रश्नोत्तरविधि- महाभाष्यकार ने महाभाष्य की रचना प्रश्वोत्तर शैली में की है। यहाँ पतञ्जलि शंका युक्त विषयों पर स्वयं ही पूर्वपक्षी बनकर आक्षेप करते है तथा साथ ही उनके समाधान भी करते है। यह विधि अध्ययन की महत्त्वपूर्ण विधि है इसमें आचार्य अपने अनुभवों से अनुमान लगा लेते है कि आने वाले शिक्षार्थी को कहाँ-कहाँ समस्या हो सकती है तथा कौन-कौन प्रश्नों आगमन हो सकता है। अतः आचार्य पूर्व ही उन प्रश्नों के समाधान कर देते है। महाभाष्य के पस्पशाह्निक में आचार्य लगभग ७५ आक्षेप करते है। तथा उनका साथ ही समाधान भी करते है। पस्पशाह्निक के आक्षेप इस प्रकार है- सर्व प्रथम शब्द के अनुशासन को बताने के बाद उसके विषय में आक्षेप करते है। “केषां शब्दानाम् ?” तथा समाधान में कहते है- लौकिकानां वैदिकानां च।
पुनः आक्षेप करते है- अथ गोरित्यत्र कः शब्दः? तथा उसके समाधान में अन्य भ्रमयुक्त शब्द के लक्षणों का व्यावर्तन कराते हुए “येनोच्चारितेन सास्नालाङ्गूलककुदखुरविषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति स शब्दः।”
अतः इस प्रकार से पतञ्जलि प्रत्येक समाधान से पुनः एक आक्षेप निकालकर अपने विषय को विस्तार दिया है। पतञ्जलि की प्रश्नोत्तर विधि पाठक के लिए अध्ययन में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे पाठक जिज्ञासु बना रहता है तथा अल्प प्रयास से ही वह उस विषय का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्रश्नोत्तरविधि से विषय के अध्ययन में तारतम्यता बनी रहती है। अतः पतञ्जलि द्वारा प्रयुक्त आक्षेप-समाधान की विधि एक सार्थक विधि है।
२.७ व्याकरणाध्ययन के प्रयोजन- व्याकरणमहाभाष्य में माहेश्वर के प्रथम सूत्र “अथशब्दानुशानम्” को उद्धृत किया है। व्याकरणमहाभाष्य में शब्द को बताकर महाभाष्यकार पूर्वपक्ष की ओर से प्रश्न करते है कि शब्दानुशासनशास्त्र का क्या प्रयोजन है- कानि पुनः शब्दानुशासनस्यप्रयोजनानि। इस प्रकार से व्याकरण के अध्ययन के क्या प्रयोजन है इस विषय में प्रश्न करते है क्योंकि “प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते” । अतः यहाँ प्रयोजन बताना आवश्यक है।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पतञ्जलि शब्दानुशासनशास्त्र के प्रयोजन को दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम मुख्यप्रयोजन तथा द्वितीय गौणप्रयोजन। मुख्यप्रयोजन में पाँच प्रयोजन है-“रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्॥ ” रक्षा, ऊह, आगम, लघु, असन्देह ये पाँच मुख्य प्रयोजन है।
१. रक्षा- वेद शास्त्र की रक्षा के लिये व्याकरणाध्ययन आवश्यक है क्योंकि वेद की रक्षा वही कर सकता है जो लोप तथा आगम का ज्ञान रखता हो। यथा वेद में अद्रुह् शब्द का प्रयोग है जिसका निर्माण दुह धातु में लङ्लकार के प्र. पु. में झ प्रत्यय को अत होने पर “लोपस्त आत्मनेपदेषु” इस सूत्र से त का लोप होता है तथा साथ ही “बहुलं छन्दसि” इस सूत्र से रूट् का आगम होता है तब अद्रुह् इस वैदिक पद का निर्माण होता है अतः वेद की रक्षा के लिये व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है।
२. ऊह- ऊह अर्थात् विभक्तियों का विपरिणाम भी शब्दशास्त्र के अध्ययन का प्रयोजन है वेद में प्रयुक्त शब्दों की विभक्तियों, वचनों आदि का ज्ञान अवश्यक है जो व्याकरण से ज्ञात होता है यथा-आग्नेययज्ञ में अग्नि देवता के लिये प्रयुक्त मन्त्र “अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि” परन्तु इसके विकृति यज्ञ “सौर्ययज्ञ” में मन्त नहीं पढा गया है केवल इतना ही कहा है “सौर्यं चरु निर्वपेद् ब्रह्मवर्चसकामः”। इस विकृति याग में वैयाकरण मन्त का ऊह करते समय “अग्नये” के स्थान पर “सूर्याय” का विपरिणाम कर लेता है। अतः व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है।
३. आगम- आगम भी व्याकरण अध्ययन का प्रयोजन है। ब्राह्मण को बिना किसी दृष्ट कारण की अपेक्षा किये छः अङ्गों से युक्त वेद का धर्म मान कर अध्ययन और अर्थज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ऐसी श्रुति है। वेद के उन छः अङ्गों में मुख्य अङ्ग व्याकरण ही है और मुख्य के विषय में किया गया प्रयत्न ही फलदायक होता है। अतः आगम भी एक प्रयोजन है।
४. लघु- व्याकरण अध्ययन का लघुता भी एक प्रयोजन है क्योंकि कम शब्दों से ज्यादा अर्थ का ज्ञान करना ही व्याकरण का प्रयोजन है। व्याकरण में कहा जाता है कि वैयाकरण शब्द से अर्द्ध मात्रा भी कम करके उसी अर्थ में शब्द प्रयोग करता है तो उसे पुत्र प्राप्ति के समान आनन्द प्राप्त होता है। व्याकरण के अध्ययन से वक्ता के द्वारा प्रयुक्त लघु वाक्य को भी समझने में मदद प्राप्त होती है
५. असन्देह- असन्देह के लिये भी व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है यथा स्थूलपृषतीमाग्निवारुणीमनद्वाहीमालभेतेति” इस वाक्य में आये “स्थूलपृषती” इस पद के अर्थ में सन्देह उत्पन्न होता है। यदि इस पद में पूर्वपद स्थूल प्रकृति स्वर है तब तो बहुब्रीहि समास है और यदि अन्तोदात्त हो जात है तो तत्पुरुष है अतः इस सन्देह को मिटाने के लिये व्याकरण का अध्ययन अनिवार्य है अतः असन्देह भी प्रयोजन है।
पतञ्जलि ने गौणप्रयोजन १३ बताये है। गौण प्रयोजन को बताते कहते है- इमानि च भूयः शब्दानुशानस्य, प्रयोजनानि- तेऽसुराः। दुष्टः शब्दः। यदधीतम्। यस्तु प्रयुङ्क्ते। अविद्वांसः। विभक्तिं कुर्वन्ति। यो वा इमाम्। चत्वारि। उत त्वः। सक्तुमिव। सारस्वतीम्। दशभ्यां पुत्रस्या। सुदेवो असि वरुणेति। इत्यादिना।
१.तेऽसुराः। तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूयुः तस्मात् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै नापभाषितवै म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः।
२. दुष्टः शब्दः। दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह।
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥
३. यदधीतम्। यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव शब्द्यते।
अनग्नाविव शुष्केन्धोन तज्ज्वलति कर्हिचित्॥
४. यस्तु प्रयुङ्क्ते। यस्तु प्रयुङ्क्ते कुशलो विशेषे शब्दान्यथावद् व्यवहारकाले।
सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद्दुष्यति चापशब्दैः॥
५. अविद्वांसः। अविद्वांसः प्रत्यभिवादे नाम्नो ये प्लुतिं विदुः।
कामं तेषु तु विप्रोष्य स्त्रीष्विवायमहं वदेत्॥
अभिवादे स्त्रीवन्मा भूमेत्यध्येयं व्याकरणम्॥
६. विभक्तिं कुर्वन्ति। याज्ञिकाः पठन्ति- प्रयाजाः –सविभक्तिकाः कार्याः इति न चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजा सविभक्तिकाः शक्याः कर्तुम्॥
७. यो वा इमाम्। यो वा इमां पदशः स्वरशोऽक्षरशश्च वाचं विदधाति स आर्त्विजीनो यजमानो भवति। आर्त्विजीनाः स्यामेत्यध्येयं व्याकरणम्।
८.चत्वारि। चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
९.उत त्वः। उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः श्रृण्वन्न श्रृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्य उशतो सुवासाः॥
१०.सक्तुमिव। सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत्।
अत्रा सखायः संख्यानि जानते भैद्रषां लक्ष्मीर्निहिताधिवाचि॥
११.सारस्वतीम्। आहिताग्निरपशब्दं प्रयुक्त प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टि निर्वपेद् इति
१२.दशभ्यां पुत्रस्या। दशम्युत्तरकालं पुत्रस्य जातस्य नाम विदध्याद् घोषवदा……….।
१३.सुदेवो असि वरुणेति। सुदेवो असि वरुणः! यस्य ते सप्त सिन्धवः।
अनुरक्षन्ति काकुदं सूम्यं सुषिरामिव॥
इस प्रकार से यहाँ १३ गौण प्रयोजन बताये हैं।
२.८ पस्पशाह्निक के मुख्य सिद्धान्त-
२.८.१ शब्द-अर्थ-सम्बन्ध की नित्यता- व्याकरण परम्परा में शब्दार्थ तथा उनके सम्बन्ध को नित्य स्वीकार किया है अतः पतञ्जलि आचार्य भी व्याकरण परम्परा के अन्तर्गत आते है। अतः पतञ्जलि भी शब्दार्थ तथा उनके सम्बन्ध को नित्य मानते है। भर्तृहरि ने भी पतञ्जलि द्वारा शब्दार्थसम्बन्ध नित्य मानने का मत “ भाष्याणां ” पद से प्रस्तुत किया है।
महाभाष्यकार ने वार्तिक का उद्धरण देते हुए शब्दार्थसम्बन्ध को नित्य कहा है। यहाँ वे सिद्ध पद को नित्य अर्थ में स्वीकार करते है क्योंकि सिद्ध शब्द नित्य शब्द का पर्यायवाची शब्द है। इस पर पुनः आक्षेप का समाधान कहते हुए कहते है संग्रहकार ने सिद्ध शब्द को अपने ग्रन्थ में कार्य शब्द के विरोधी अर्थ में प्रयुक्त किया है। नित्य शब्द के स्थान पर सिद्ध शब्द के प्रयोग के विषय में कहते है कि सिद्ध शब्द मंगलवाची है अथः उसका प्रयोग किया है। पतञ्जलि व्याडि का भी मत प्रस्तुत करते है। व्याडि के अनुसार शब्द नित्यानित्य दोनों है तथा दोनों स्थिति में शास्त्र का अध्ययन आवश्यक बताते है।
अतः इस प्रकार पस्पशाह्निक में शब्दार्थ सम्बन्ध को नित्य कहा है।
२.८.२-लक्ष्य-लक्षण व्याकरण- शब्द को व्याकरण मानते हुए पतञ्जलि ने व्याकरण का स्वरूप भी बताया है । महाभाष्यकार कहते है कि “लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्” अर्थात् लक्ष्य यानि "शब्द" और लक्षण अर्थात् "सूत्र' इन दोनों से मिलकर ही 'व्याकरण बनता ह, न केवल लक्ष्य और न केवल लक्षण ही व्याकरण है। इस पर पूछते हैं कि लक्ष्य क्या है और लक्षण क्या है? इसका उत्तर देते हैं कि 'शब्द' लक्ष्य है और ‘सूत्र' लक्षण है। 'सूत्र" द्वारा शब्दों का साधन होगा तो 'सूत्र' लक्षण बन जाता है और जिन शब्दों का साधन होगा वे 'शब्द' लक्ष्य हैं। इस प्रकार 'उदाहरण' और 'सूत्र' दोनों ही मिलकर 'व्याकरण' शब्द का अर्थ बन जाते हैं। भाष्यकार आगे इस पर आपत्ति करते हुए कहते हैं कि किन्तु 'व्याकरण' शब्द का ऐसा अच्छा अर्थ करने पर भी यह दोष आता ही है कि शब्द और सूत्र अर्थात् लक्ष्य और लक्षण दोनों को मिलाकर ही 'व्याकरण' शब्द का अर्थ बनेगा। फलत: केवल 'लक्ष्य' और केवल 'लक्षण' इन में अलग-अलग 'व्याकरण' शब्द का अर्थ नहीं घट सकेगा अर्थात् लक्ष्य-लक्षण मिला हुआ जो समुदाय है, वही व्याकरण होगा। परिणामत: उनका अवयव जो केवल 'लक्ष्य' और केवल 'लक्षण' है, वह 'व्याकरण' नहीं बन सकेगा। परन्तु हम चाहते यह हैं कि केवल 'सूत्र' पढ़ने वाला भी 'वैयाकरण' कहलाए-'व्याकरणमधीते इति वैयाकरण:"। यहाँ 'व्याकरण' शब्द से 'तदधीते तद् वेद" (पा.4.2.59) सूत्र से 'अण्' प्रत्यय होकर यह 'वैयाकरण' शब्द बनता है। यहाँ केवल 'सूत्र' को पढ़ने वाला भी 'वैयाकरण' कहलाता है। इस प्रकार 'लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्" इस वार्तिक को मानने पर भी केवल 'लक्ष्य' और केवल 'लक्षण' को 'व्याकरण' कैसे कह सकेंगे।
२.८.३वर्णोपदेश का प्रयोजन- अक्षरसमाम्नाय में 'अ' 'इ' 'उ' इत्यादि वर्णों का उपदेश एक विशेष क्रम में किसलिए किया गया है तो इसका उत्तर वार्तिक से देते हैं। इसका अर्थ है कि वृत्ति के समवाय के लिए वणों का उपदेश किया गया है। वृत्ति का अर्थ है- शास्त्र में प्रवृत्ति और समवाय का अर्थ हैं- वणों का आनुपूर्वी से अर्थात् विशेष क्रम से सन्निवेश या रखना। अक्षरसमाम्नाय में इन अकारादि वर्णों का जो एक विशेष क्रम से सन्निवेश है, वह शास्त्र में प्रवृत्ति के लिए है जिससे विशेष क्रम में रखे हुए इन अकारादि वणों को शास्त्र में प्रवृत्ति के लिए उपयोग में ला सकें। उपदेश का अर्थ उच्चारण है; क्योंकि "दिश धातु उच्चारणार्थक है। वर्णों का उच्चारण करके ही कहते हैं कि ये वर्ण उपदिष्ट हो गए अर्थात् इनका उच्चारण हो गया।
प्रत्याहारों में अनुबन्ध लगाने के लिए भी यहां वर्णों का प्रकृत विशिष्ट क्रम में उपदेश करना चाहिए अर्थात् 'अ इ उ ण्', 'ऋलृक्', 'ए ओ ङ्' इत्यादि सूत्रों में 'ण्', 'क्', 'ङ्' इत्यादि अनुबन्ध लगाने के लिए भी अकारादि वणों का उपदेश किया गया है; क्योंकि इन वणों में 'ण्', 'क', 'ङ्' आदि अनुबन्ध लगाऊँगा- यह"सोचकर ही आचार्य पाणिनि ने वर्णों का उपदेश किया है। और वर्णों का विशिष्ट क्रमसंवलित उपदेश किए बिना अनुबन्ध लगाए नहीं जा सकते। इस प्रकार यह वर्णों का उपदेश वृत्तिसमवाय के लिए है अर्थात् शास्त्र में वर्णों की प्रवृत्ति एक विशेष आनुपूर्वी से हो सके- इसके लिए और 'ण्', 'क', 'ङ्' आदि अनुबन्ध लगाने के लिये किया गया है। दूसरे शब्दों में वर्णों का उपदेश होने पर 'अच्' इत्यादि प्रत्याहारसंज्ञाओं द्वारा संक्षेप में शास्त्र का व्यवहार चल सके तथा 'इक-यण्' इत्यादि शास्त्रीय कार्यों में यथासंख्य कार्य हो सकें- इसलिए वर्णों का उपदेश किया गया है। ऐसी स्थिति में वृत्तिसमवाय तथा अनुबन्धों का लगाना 'अण्' आदि प्रत्याहारे द्वारा सरलता से प्रयोगों की सिद्धि करने के लिए है।
आगे इसी बात को बताते हुये वार्तिक के माध्यम से कहते है कि और इष्ट बुद्धि अर्थात् जो वर्ण हमें इष्ट हैं, अभिमत हैं, उन का ज्ञान करने के लिए भी वणों का प्रकृत विशिष्ट क्रम से उपदेश करना चाहिए। हम चाहते हैं कि इष्ट वर्णों की जान सकें। और वर्णों के उपदेश के बिना वे इष्ट वर्ण जाने नहीं जा सकते। अत: इष्ट वर्णों के बोध के लिए भी यह प्रकृत विशिष्ट क्रमसंवलित वर्णोपदेश करना चाहिए।
२.८.४उत्सर्ग-अपवाद सिद्धान्त- शब्द को कैसे जान सकेंगे इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महाभाष्यकार कहते है उसके लिये कोई सामान्य एव विशेष नियम बना देना चाहिए जिससे थोडे यत्न द्वारा बडे़ से बडे़ शब्द समूहों को जान सकें। पूछते हैं कि वह लक्षण कौन सा होगा? इसका उत्तर है- उत्सर्ग और अपवाद। कोई नियम तो उतसर्ग करना होगा। उत्सर्ग का अर्थ सामान्य है। और कोई नियम उसका अपवाद अर्थात् बाधकरूप से कहना होगा। पुन: पूछते हैं कि किस प्रकार का उत्सर्ग होगा और किस प्रकार का अपवाद तो निवेदन है कि सामान्य नियम तो उत्सर्ग होगा, जैसे- 'कर्मण्यण्' (3.2.1) यह सूत्र है। यह कर्म उपपद होने पर धातुमात्र से 'अण्' प्रत्यय विधान करता है। यह उत्सर्ग सूत्र होकर सामान्यरूप से सभी धातुओं से कर्म उपपद होने पर 'अण्' प्रत्यय कर देगा। फिर इसका अपवाद 'आतोऽनुपसर्गे क:' (3.2.3) यह सूत्र होगा जो विशेषरूप से आकारान्त धातुओं से उपसर्गभिन्न उपपद होने पर 'क' प्रत्यय करेगा। इस प्रकार सामान्यविशेषरूप लक्षण द्वारा सभी अभीष्ट शब्दों का उपदेश हो जाएगा और वह सरल एवं लघु भी होगा।
२.८.५ लोक तथा शास्त्र के मध्य सम्बन्ध- शब्द, अर्थ तथा उनके सम्बन्ध को नित्य मानते हुए पतञ्जलि ने लोक को भी प्रमाण माना है तथा लोक तथा शास्त्र में क्या सम्बन्ध को भी यहा स्पष्ट किया है। शब्द, अर्थ तथा उनके सम्बन्ध को नित्य मानते हुए लोक को प्रमाण मानते हुए कहते है कि लोक में हम देखते हैं कि घटपटादि पदार्थों के उपयोग के लिए हम उनके हेतु शब्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु उन पदार्थों की उत्पति में कोई यत्न नहीं करते। जब पदार्थ की इच्छा हुई तभी उसके लिए शब्द का प्रयोग कर दिया। इसका कारण है कि जो अनित्य पदार्थ होते हैं उनकी उत्पत्ति के लिए तो यत्न किया जाता है परन्तु जो पदार्थ अनित्य न होकर नित्य होते हैं उनका सीधा ही उपयोग कर लिया जाता है, उन्हें बनाया अथवा बनवाया नहीं जाता; जैसे घडे से कार्य करने वाला मनुष्य कुम्हार के घर जाकर कहता है कि जरा घड़ा बना दीजिए। मुझे इससे कार्य करना है। अब कुम्हार जब घट बनाएगा तब वह उसका उपयोग करेगा। इस तरह बनाया जाने से घट तो अनित्य हुआ। परन्तु इसके विपरीत शब्दों का प्रयोग करने वाला मनुष्य किसी वैयाकरण के घर जाकर यह नहीं कहता कि जरा शब्द बना दीजिए, मैं इनका प्रयोग करूंगा अपितु ज्यों ही उसके मन में किसी पदार्थ को कहने की इच्छा होती है त्यों ही बुद्धि में आते ही उस अर्थ के अनुकूल शब्दों का प्रयोग कर देता है। इस तरह बनवाया न जाने से अपितु पहले से ही बना-बनाया या सिद्ध होने से शब्द नित्य बन जाता है। इस लोकव्यवहार से ही यह जाना जाता है कि शब्द, अर्थ तथा उनका सम्बन्ध ये तीनों ही नित्य हैं।
अच्छा तो, यदि लोक ही इन तीनों की नित्यता में प्रमाण है तो फिर व्याकरणशास्त्र की क्या आवश्यकता है अर्थात् फिर इस व्याकरणशास्त्र के निर्माण या अध्ययन की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर वार्तिक द्वारा दिया जाता है। इसका अर्थ है कि लोक में अर्थ के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द के प्रयोग में शास्त्र द्वारा धर्म का नियम किया जाता है। वार्तिक में “धर्मनियमः” यह शब्द आया है। इसका अर्थ समझाने के लिए भाष्यकार पूछते हैं कि यह 'धर्मनियम' क्या चीज है? इसका क्या अर्थ है? तो उत्तर देते हैं कि 'धर्माय नियमो धर्मनियम:', 'धमार्थों वा । नियमो धर्मनियम:','' धर्मं प्रयोजनो वा नियमो धर्मनियम:' अर्थात्' धर्मनियमः' यह समस्त पद है। इसका अर्थ है कि धर्म के लिए जो नियम है, वह धर्मनियम है। शास्त्र द्वारा भी धर्म का नियम हो जाता है। ऐसी स्थिति में धर्म के लिए या धर्म है प्रयोजन जिसका उसे 'धर्मनियम' कहते हैं। शास्त्र का यही प्रयोजन है कि साधु शब्दों के अनुशासुन से धर्म की प्राप्ति हो; क्योंकि असाधु शब्दों से धर्म का र्नियम नहीं हो सकता।
२.८.५ अर्थ का सिद्धान्त:-शब्द से ज्ञात होने वाले अर्थ चार प्रकार के हैं। इस कारण शब्द भी चार प्रकार का है- जाति, गुण, क्रिया और संज्ञा। यह कहकर भाष्यकार कहते हैं कि जाति, गुण और क्रिया ये तीन ही प्रकार होते हैं और संज्ञा शब्द इन तीनों में ही समाविष्ट होते हैं एवं प्रत्येक शब्द व्युत्पन्न होता है। यह शाकटायन का पक्ष पतंजलि ने सिद्धांत के रूप में स्वीकृत किया है।
संज्ञा शब्द ही पहले जाति, गुण और क्रिया इन अर्थों में किसी एक के बोधक के रूप में प्रयुक्त होता है। मूल रूप में वह स्थूल नहीं होता है। वह व्युत्पन्न युक्त ही है, ऐसा पतंजलि का अभिप्राय हो सकता है। ऐसा टीकाकारों का भी कहना है। कुछ भी हो, जाति, गुण और क्रिया ये अर्थों के तीन प्रकार सर्वमान्य हैं। महाभाष्यकार ने इन तीनों अर्थों के लक्षण किये हैं। वे लक्षण प्राथमिक स्वरूप के तथा स्थूल हैं। क्रिया नित्यश: परोक्षानुमेय है, ऐसा पतंजलि का कहना है। यह कथन मीमांसकों के मत के समान है। पतंजलि ने गुण की जो व्याख्या की है, उसके अनुसार वह सांख्य संमत सत्वरजस्तमोरूप नहीं है और न ही नैयायिकों का संमत शब्द, स्पर्श आदि चौबीस गुणों में से एक, बल्कि अलग ही है। नैयायिकों के अनुसार ज्ञान, संयोग, गुण हैं, किन्तु वैयाकरणों के अनुसार वह क्रिया है। लिंग के विषय में भी व्याकरण शास्त्र का व्यवहार कुछ अन्य ही है। शब्दसिद्धि को लक्ष्य बनाकर व्याकरण शास्त्र ने अपना मार्ग स्वतंत्र रूप में बनाना चाहा, ऐसा भाष्यकार मानते हैं। तात्पर्य यह है कि शब्दसिद्धि एकमेव उद्देश्य होने के कारण पतंजलि द्वारा की गई जाति, गुण, क्रिया इत्यादि की व्याख्याएं न केवल अन्य शास्त्रकारों के अभिप्राय से अपितु व्यवहार में भी कुछ शिथिल प्रतीत हो सकती हैं। इन मर्यादाओं को ध्यान में रखकर ही उनका आशय समझना चाहिए।
२.८.६ शब्द का स्वरूप- प्रारम्भ में पतंजलि ने शब्द स्वरूप का विवेचन किया है। जिसके अभिव्यक्त होने पर अर्थ ज्ञान होता है, वह शब्द है, ऐसा शब्द का तटस्थ लक्षण पहले कहा गया है। लोगों में अर्थ ज्ञान कराने वाली ध्वनि की संज्ञा शब्द है- ऐसा स्वरूप लक्षण लोगों को समझाने के लिए कहा गया है। महाभाष्यकार ने अन्यत्र बहुत स्थलों पर 'शब्द नित्य है', ध्वनि कार्य अनित्य है, कार्यरूप ध्वनि से अर्थ बोधक नित्य शब्द अभिव्यक्त होता है, ऐसा व्याकरणशास्त्रीय सिद्धांत प्रस्थापित किया है।
यह विषय वार्तिककार ने प्रथम वार्तिक में ही 'सिद्धे शब्दार्थसंबंध' इन शब्दों में संक्षेप में प्रस्तुत किया है। ये शब्द संदेहजनक हैं। अत: वार्तिककार की शब्द स्वरूप के विषय में निश्चित रूप से क्या राय है, यह समझ में नहीं आती। 'सिद्ध' शब्द के नित्य, पूर्वनिष्पन्न, पूर्वज्ञात, इत्यादि अर्थ वाङ्मय में प्रसिद्ध हैं। इस वार्तिक में जिस 'सिद्ध' शब्द का प्रयोग है, उसका अर्थ 'नित्य' ही वार्तिककार को अभिप्रेत है, ऐसा पतंजलि का अभिप्राय है। शब्दार्थ संबंध समाहार द्वन्द्व है। अत: शब्द, अर्थ और उनका संबंध तीनों पदार्थ नित्य हैं, ऐसा व्याकरण सिद्धांत वार्तिककार ने इन शब्दों में आरम्भ में ही स्पष्टतया प्रस्थापित किया है, ऐसा पतंजलि ने माना है। लेकिन शब्द उत्पन्न हुआ, शब्द नष्ट हुआ, अर्थ उत्पन्न हुआ, अर्थ नष्ट हुआ, संबंध उत्पन्न हुआ, संबंध नष्ट हुआ, इस प्रकार शब्दार्थ के विषय में 'उत्पन्न' एवं 'नष्ट' व्यवहार सर्वत्र सब लोग करते हैं, इस कारण शब्दार्थ संबंध को नित्य समझने में उपर्युक्त व्यवहार और प्रत्यक्ष अनुभव दोनों बोधक हैं। फिर वह नित्य कैसे। आलोचना- पतंजलि और अन्य आलोचकों ने इस बाधा का परिहार इस प्रकार किया है। शब्द दो प्रकार का होता है- नित्य और कार्य। कार्य एवं ध्वनिरूप शब्द से नित्य शब्द अभिव्यक्त होता है। कार्य अथवा अनित्य ध्वनिरूप शब्द के संदर्भ में 'उत्पन्न: शब्द:', 'नष्ट: शब्द:' इत्यादि व्यवहार किया जाता है और अनुभूति भी उसी तरह प्राप्त होती है। लेकिन वह कार्य शब्द वास्तविक शब्द नहीं है। केवल उपचार से या शब्द के प्रयोग में प्रमाद के कारण लोग ऐसा व्यवहार करते हैं। इस प्रकार ध्वनिसमूह के द्वारा व्यक्त होने वाला अर्थ बोधक शब्द नित्य होते हुए भी वक्ता की या श्रोता की बुद्धि में सदैव अवस्थित है। उसी को वैयाकरण स्फोट कहते हैं। इस प्रकार पतंजलि ने शब्द के स्वरूप के विषय में सिद्धांत प्रस्थापित किया है। शास्त्रकारों से मतभेद- कुछ शास्त्रकार मानते हैं कि शब्द से जातिरूप अर्थ ज्ञात होता है। इससे उनके मतानुसार अर्थ की नित्यता प्रमाणित होती है। लेकिन जो शास्त्रकार ऐसा समझते हैं कि शब्द से व्यक्ति रूपमात्र अर्थ ज्ञात होता है, उनके मत के अनुसार शब्द अनित्य है। कुछ शास्त्रकार ऐसा मानते हैं कि शब्द से जाति, आकृति और व्यक्ति ये तीन अर्थ प्रतीत होते हैं। आकृति का अर्थ है कि अवयव संस्थान। वह निश्चित रूप से नष्ट होने वाली है। फिर अर्थ नित्य है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है। महाभाष्कार कहते हैं कि शब्द से ज्ञात होने वाला अर्थ जो भी हो वह नित्य है, यही हमारी गति है। वस्तुएं वही नित्य कहलाती हैं, जो विशिष्ट स्थल से नष्ट हों, किन्तु उनकी सत्ता नष्ट नहीं हो। वह वस्तु अन्यत्र कहीं होती ही है। पतंजलि ने इस विषय में नित्यत्व का सर्वमान्य लक्षण बदल डाला है। उत्तरकाल के टीकाकारों ने व्यवस्थानित्यता, व्यवहारनित्यता और प्रवाहनित्यता ऐसे शब्द उस अर्थ से रूढ़ किए हैं। इस प्रकार शब्द नित्य है, अर्थ भी प्रवाहनित्य है, एवं नित्य शब्द और नित्य अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है। इसीलिए वार्तिककार 'सिद्धे शब्दार्थ संबंधे' कहते हैं। लेकिन महाभाष्यकार के द्वारा नित्यत्व की कल्पना में किया गया यह परिवर्तन किसी को भी मान्य होने वाला नहीं है। इसका कारण यह है कि नित्यत्व का दूसरा लक्षण यदि मान्य किया जाए, तो मनुष्य, वृक्ष, घट, पट, सब पदार्थों को नित्य मानना पड़ेगा। नित्य और अनित्य का यह विभाजन निरर्थक होगा। महाभाष्यकार के मन में भी यह शल्य था ही, इसीलिए उन्होंने शब्दार्थ संबंध में त्रिपद समाहारद्वंद्व अस्वीकृत किया। पहले अर्थ संबंध में षष्ठी तत्पुरुष मानकर उसके बाद शब्द और अर्थ संबंध में समाहारद्वंद्व माना जाए और शब्द और उसका अर्थ से संबंध नित्य होता है, इस प्रकार वार्तिक का आशय और व्याकरण शास्त्र का सिद्धांत समझा जाए और शब्द और उसका अर्थ से संबंध नित्य होता है, इस प्रकार वार्तिक का आशय और व्याकरण शास्त्र का सिद्धांत समझा जाए, ऐसा मत प्रदर्शित किया है।
अर्थ नित्य हो या अनित्य हो, शब्द और उसका अर्थ संबंध नित्य होता है, ऐसा वार्तिक का आशय भाष्यकार ने बताया है। लेकिन संबंध दो संबंधियों पर आश्रित रहता है। उसी के कारण यदि दो संबंधी नित्य हों तब ही वह संबंध नित्य माना जायेगा। दो संबंधियों में से एक अनित्य हो, तब संबंध भी अनित्य रहेगा। इस आक्षेप का निराकरण टीकाकारों ने इस प्रकार से किया है। दो संबंधियों में से एक संबंधी भी यदि नित्य हो, तभी संबंध नित्य होता है। संबंध योग्यतारूप होता है। दूसरी वस्तु के आते ही वह अभिव्यक्त होता है। इसके अतिरिक्त नैयायिकों ने जाति-व्यक्ति, गुण-गुणी, अवयवावयवी का संबंध नित्य माना है। इन दो-दो संबंधियों में दोनों ही अनित्य हैं, फिर भी उनका संबंध नित्य मानने में कोई भी बाधा उन्हें प्रतीत नहीं होती। फिर नित्य शब्द और अनित्य अर्थ का संबंध नित्य मानने में क्या बाधा है।
सम्भव है कि इस वार्तिक में प्रयुक्त 'सिद्ध' शब्द का वार्तिककार के मन में जो अर्थ है, वह 'पूर्व निष्पन्न' या 'पूर्व ज्ञात' हो। सूत्रकार ने या वार्तिककार ने इस शब्द को 'पूर्व निष्पन्न' या 'पूर्व ज्ञात' के अर्थ में कई स्थानों पर स्वीकृत किया है। यदि यह वास्तविकता ध्यान में ली जाए तो व्याकरण शास्त्र में शब्द नित्यत्व की कल्पना प्रथमत: पतंजलि ने स्थापित की है और उसको शास्त्र का प्राण समझ कर स्थल स्थल पर उन्होंने उस कल्पना का समर्थन करके उसको स्थिर किया है। उत्तरकाल के टीकाकारों ने उसको सुपुष्पित और सुफलित किया है, यह कहना युक्त होगा।
२.९ वार्तिकों का प्रयोग:-
महाभाष्यकार ने महाभाष्य में वार्तिकों का प्रयोग किया है। वार्तिककार आचार्य कात्यायन है। कात्यायन का समय पाणिनि तथा पतञ्जलि के मध्य रहा है। कात्यायन ने अपने वार्तिकों में पाणीनि का अनुसरण करते हुए कहीं-कही उनकों विस्तृत रूप भी दिया है। हालांकि कात्यायन कई स्थानों पर पाणिनि से मत भेद रखते हैं परन्तु फिर भी वे पाणिनि का अनुसरण करते है। पतञ्जलि ने कात्यायन के वार्तिकों को महाभाष्य में प्रस्तुत किया है। यदि पस्पशाह्निक की बात करें तो पतञ्जलि ने पस्पशाह्निक में २४ वार्तिकों का प्रयोग किया है। जो शंका के समाधान के लिये प्रयुक्त की गई है। ये वार्तिक भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त है।
1) सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे।
2) लोकतोऽर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः।
3) यथा लौकिकवैदिकेषु।
4) अस्त्यप्रयुक्त इति चेन्नार्थे शब्दप्रयोगात्।
5) अप्रयोगः प्रयोगान्यत्वात्।
6) अप्रयुक्ते दीर्घसत्रवत्।
7) सर्वे देशान्तरे।
8) ज्ञाने धर्म इति चेत्तथाऽधर्मः।
9) आचारे नियमः।
10)प्रयोगे सर्वलोकस्य।
11)शास्त्रपूर्वके प्रयोगेऽभ्युदयस्तत्तुल्यं वेद शब्देन।
12)सूत्रे व्याकरणे षष्ठ्यर्थोऽनुपपन्नः।
13)शब्दाप्रतिपत्तिः।
14)शब्दे ल्युडर्थः।
15)भवे च तद्धितः।
16)प्रोक्तदयश्च तद्धिताः।
17)लक्ष्यलक्ष्यव्याकरणम्।
18)वृत्तिसमवायार्थ उपदेशः।
19)अनुबन्धकरणार्थश्च।
20)इष्टबुद्ध्यर्थश्च।
21)इष्टबुद्ध्यर्थश्चेति चेदुदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्घप्लुतानामप्युपदेशः।
22)आकृत्युपदेशात् सिद्धम्।
23)आकृत्युपदेशात्सिद्धमिति चेत् संवृतादीनां प्रतिषेधः।
24)लिङ्गार्था तु प्रत्यापत्तिः।
इस प्रकार से प्रथमाह्निक में महाभाष्यकार ने आक्षेप के समाधान में कात्यायन की वार्तिकों का प्रयोग किया है। महाभाष्य में “लोकतः” इस वार्तिक को अनेक टीकाकारों ने वार्तिक न मानकर वार्तिक का अंश मात्र माना है।
उपसंहार-
व्याकरण की परम्परा में व्याकरण के भाष्य लिखने की परम्परा रही है क्योंकि महाभाष्य शब्द से ज्ञात होता है कि व्याकरण का यह भाष्य अन्य सभी भाष्यों से उत्कृष्ट रहा होगा चाहे वह महत्त्व की दृष्टि से हो या ग्रन्थ के विस्तार की दृष्टि से इन दोनों ही प्रकार से पतञ्जलि महाभाष्य का अत्यधिक महत्त्व है। महाभाष्य मे के पस्पशाह्निक महाभाष्य की भूमिका के रूप में लिखा गया है है जिसमें शब्द, अर्थ, शब्दनित्यता, व्याकरण के अध्ययन की विधि, व्याकरण अध्ययन के प्रयोजन, वर्णोच्चारण के प्रयोजन, व्याकरण का लक्षण इत्यादि कई सिद्धान्त पस्पशाह्निक में वर्णित किया गया है। इसकी संरचना प्रश्नोत्तर विधि से हुई है यहाँ प्रश्न से स्वयं पतञ्जलि आक्षेप करते है तथा स्वयं ही उसका समाधान भी करते है। इस प्रकार से विषय को यहाँ प्रस्तुत किया है। इस विधि से शिक्षार्थी में जिज्ञासा बनी रहती है अतः यह भी महाभाष्य की महत्ता है। इस प्रकार से महाभाष्य का महत्त्व है।
धन्यवाद
6 comments
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ReplyOm
ReplyI want PDF of the Mahabhashy original Sanskrit text.
Could you pls provide?
Thanks
I want pdf of the mahabhashy original sanskrit
Replyhttps://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.406302
Replyhttps://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.406302
Replyपस्पशाह्निकप्रसंगे अतीव समीचीनो लेख:।
Replyबहुविस्तरेण व्यालेखि।धन्यवादार्हा भवन्त:।
वैयाकरणश्शिवयोगी , हरिद्वारत:
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