भाषाविज्ञान के कुछ अंश

भाषाविज्ञान के कुछ अंश

 

१.      Philology- भाषा का तुलनात्मक अध्ययन

२.      भाषा विज्ञान को अंग्रेजी में science of language कहा जाता रहा।

३.      फिलोलोजी का अर्थ  है किसी भाषा का साहित्यिक दृष्टि से अध्ययन।

४.      मेरियो पाई ने विश्व में २७९६ भाषा बताई।

५.      भाषाओं का वर्गीकरण आकृतिमूलक तथा पारिवारिकमूलक दो प्रकार से निर्धारित किया है।

६.      आकृतिमूलक को पदात्मक, वाक्यात्मक, व्याकरणिक तथा रचनात्मक ढंग से देखा जाता है।

७.      आकृतिमूलक वर्गीकरण के प्रकार के विषय में अनेक मत है यथा श्लेगल ने इसे २ भाग में विभाजित किया है, वॉप ने इसे ३ भागों में विभाजित किया, पाट ने इसे ४ भागों में विभाजित किया।

८.      आकृतिमूलक वर्गीकरण को मुख्यतः दो वर्गों में विभक्त किया है- १. अयोगात्मक तथा २.योगात्मक

९.      अयोगात्मक वर्गीकरण

१. अयोगात्मक वर्गीकरण व्यास प्रधान तथा निरवयव होता है।

२. स्थान- चीन , बर्मा, तिब्बत तथा थाईलैण्ड।

३. इसमें स्थान, निपात तथा सुर का विशिष्ट स्थान है।

४.चीनी भाषा में सुर तथा स्थान का विशेष महत्त्व है।

५.सूडानी भाषा में स्थान का विशेष महत्त्व है।

६. स्यामी भाषा में सुर का विशेष महत्त्व है।

७.बर्मी-तिब्बती भाषा में निपात का विशेष स्थान है।

१०.    योगात्मक वर्गीकरण

१.      प्रकृति+प्रत्यय की प्रधानता है।

२.      इस वर्गीकरण में विश्व की सर्वाधिक भाषा है।

३.      इसमें प्रत्येक शब्द स्वतन्त्र है

४.      इसमें अर्थतत्त्व+सम्बन्धतत्त्व है।

५.      यह वर्गीकरण तीन भागों में विभक्त है- अश्लिष्ट-योगात्मक, प्रश्लिष्ट-योगात्मक तथा श्लिष्ट-योगात्मक

६.      अश्लिष्ट-योगात्मक- प्रत्यय प्रधान

७.      प्रश्लिष्ट-योगात्मक- समास प्रधान

८.      श्लिष्ट-योगात्मक-विभक्ति प्रधान

११.    अश्लिष्ट-योगात्मक

१.      तिल-तण्डुलन्यायवत्

२.      तुर्की इस वर्ग की प्रतिनिधि भाषा है, इसके अतिरिक्त बन्तु, पूराल, अल्ताई द्रविड़ मुण्डा आदि।

३.      अश्लिष्ट योगात्मक की ४ भाग है- १. पुरःप्रत्ययप्रधान/पूर्वयोगात्मक २.मध्यप्रत्ययप्रधान/मध्ययोगात्मक, ३.परप्रत्य-प्रधान/अन्तयोगात्मक, ४.पूर्वान्तयोगात्मक या आंशिक योगात्मक/सर्वप्रत्ययप्रधान भाषा

४.      पूर्वयोगात्मक- प्रत्यय के स्थान पर उपसर्ग। यह उपसर्ग प्रकृति के पूर्व में जुडते है। इसके अन्तर्गत बान्तू परिवार की काफिरीतथा जुलूभाषा आती है।

५.      मध्ययोगात्मक- इसमें प्रत्यय मध्य में प्रयोग होता है। मुण्डा परिवार की संथाली भाषा इस वर्ग में आती है।

६.      अन्तयोगात्मक- प्रत्यय प्रकृति के बाद प्रयोग होता है। इसके अन्तर्गत पूरात, अल्ताई, द्रविड़ भाषा परिवार आते है।तुर्की भाषा अल्ताई परिवार की अन्तयोगात्मक भाषा है। भारत की कन्नड तथा मलयालम में अन्तयोगात्मक दृष्टिगोचर होता है।

७.      पूर्वान्तयोगात्मक- प्रत्यय प्रकृति के पूर्व तथा अन्त दोनों ओर जुड़़ते है। पपुआई परिवार की भाषाएँ इसके अन्तर्गत आती है। यूगिनी द्वीप की मफोर एवं मलयशाखा की भाषाएं इसका उदाहरण है।

१२.    प्रश्लिष्ट योगात्मक/ समास प्रधान

१.      इसका उदाहरण ग्रीनलैण्ड तथा दक्षिण अमेरिका की भाषाएँ।

२.      चेरौकी भाषा इसका उदाहरण है।

३.      अर्थतत्त्व की दृष्टि से इस वर्ग के दो भाग है- पूर्णप्रश्लिष्ट- ग्रीनलैण्ड की एस्किनो भाषा, २.आंशिक प्रश्लिष्ट- पिरेवीज पर्वत की बास्क भाषा। भारत की भाषाओं में गुजराती तथा मराठी इसके अन्तर्गत आती है।

१३.    श्लिष्टयोगात्मक-

१.      इसके उदाहरण- संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अरबी आदि है।

२.      इसके दो भाग है-  १.बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक तथा २.अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक

३.      बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक- इसमें विभक्ति बाहर से जुडती है, इसके उदाहरण- संस्कृत, ग्रीक लैटिन, अवेस्ता आदि है। इसके भी दो भेद है- १. संयोगात्मक- संस्कृत तथा २. वियोगात्मक- हिन्दी

४.      अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक- सेमेटिक परिवार की अरबी भाषा तथा हेमेटिक परिवार की मिस्री भाषा तथा अरबी भाषा। इसके भी दो भेद है- संयोगात्मक- अरबी तथा वियोगात्मक- हिब्रू

 

१४. परिवारमूलक वर्गीकरण

१.      रचनातत्त्व तथा अर्थतत्त्व को आधार बनाकर इस परिवार का वर्गीकरण किया है।

२.      यह वर्गीकरण वाक्य रचना तथा आन्तरिक रचना का संयुक्तरूप है।

३.      इस वर्गीकरण का आधार- स्थानिक समीपता, शब्दों की समानता, व्याकरण साम्य तथा ध्वनिसाम्य है।

४.      परिवारमूलक वर्गीकरण में अनेक मत                           

१.      १८२२ में जर्मन विद्वान विल्हेम बॉन हम्बोलन ने १३ भाषा परिवार बतायें।

२.      ग्रे ने २६ भाषा परिवार बतायें।

३.      पार्टिरिज ने १० भाषा परिवार बतायें।

४.      फ्रेडरिसमूलर ने १०० भाषा परिवार बतायें।

५.      अमर बहादुर ने १२ भाषा परिवार बतायें।

६.      डॉ देवेन्द्र नाथ शर्मा ने १८ भाषा परिवार बतायें।

१५. भारोपीय परिवार

१.      इस परिवार को युरेशिया परिवार भी कहते है।

२.      इसे महान भाषा परिवार भी कहते है।

३.      यह परिवार साहित्य से परिपूर्ण है।

४.      इस परिवार का अत्यधिक अध्ययन हुआ है।

५.      यह परिवार प्राचीनतम है।

६.      यह परिवार सर्वाधिक विकसित है।

७.      इस परिवार के दो भाग है- सतम् वर्ग तथा केन्टुम् वर्ग

८.      सतम तथा केण्टुम वर्ग का नामकरण फिनलैण्ड ने किया।

९.      सतम वर्ग की प्रतिनिधि भाषा- अवेस्ता है तथा कैण्टुम वर्ग की लैटिन है।

सतम् वर्ग                                 कैण्टुम् वर्ग

अवेस्ता- सतम्                             लैटिन-कैण्टुम्

फारसी- सद्                                 ग्रीक- अस्तोम

संस्कृत-शतम्                              इटैलिक-केण्टो

हिन्दी-सौ                                    फ्रैंच- केन्त

रुसी-स्तो                                     केल्टी-कैन्ट

बल्गेरियन-सुतो                            गवेलिक- बुड

लिथुआनियम- स्जिमास                तोखारी- रुन्ध

प्राकृत- सरं                                  गाथिक-खुंद

 

१६.    द्राविड परिवार- इस परिवार को तमिल परिवार भी कहते है। इस परिवार में प्रधान रूप से अश्लिष्ट अन्तयोगात्मक भाषा है। तमिल, तेलगू, कन्नड, मलयालम, गौडी, उरांव, ब्राहुई, तुलु, कोडगु, टोडा, कोटा, माल्टो, कंधी और कोलामी आदि भाषा इसके अन्तर्गत आती है।

१७.    चीनी परिवार- इस परिवार को एकाक्षरी परिवार कहते है। इसकी सभी भाषाएँ अयोगात्मक है। इसकी भाषाओं का कोई व्याकरण नहीं होता है। इन भाषाओं में सुर-निपात प्रधान है। चीन, बर्मा, स्यामा, तिब्बत आदि देश की भाषाएँ इसी परिवार के अन्तर्गत आती है।

१८.    उच्चारण-स्थान -

 

१.      अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः।

२.      इचुयशानां तालुः।

३.      ऋटुरषाणां मूर्द्धाः।

४.      लृतुलसानां दन्ताः।

५.      उपूपध्मानीयानामोष्ठौ।

६.      ञमङणनानां नासिका।

७.      ऐदैतोः कण्ठतालु।

८.      ओदौतोः कण्ठोष्ठौ।

९.      वकारस्य दन्तौष्ठ्य।

१०.    जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्।

 

१९.    प्रयत्न दो प्रकार से विभाजित किये हैं।

आभ्यन्तर प्रयत्न-५

१.स्पृष्ट- स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानां

(कादयोःमावसानां स्पर्शाः)  

२.ईषत्स्पृष्ट- अन्तस्थानाम्   

३.ईषत्विवृत्- ऊष्माणाम्

४.विवृत्- स्वराणाम्

५.संवृत्- ह्रस्वस्य अवर्णस्य प्रयोगे संवृतम् 

बाह्यप्रयत्न-११

१.विवार- खरो विवाराः श्वासा अघोषश्च।

२.श्वास- खरो विवाराः श्वासा अघोषश्च।

३.अघोष-खरो विवाराः श्वासा अघोषश्च।

४.संवार- हशः संवारा नादा घोषश्च।

५.नाद- हशः संवारा नादा घोषश्च।

६.घोष- हशः संवारा नादा घोषश्च।

७.अल्पप्राण- वर्ग के १,३ तथा ५वाँ वर्ण

८.महाप्राण- वर्ग के २ तथा ४ वाँ वर्ण

९.उदात्त- उच्चैरनुदात्तः।

१०.अनुदात्त- निच्चैरनुदात्तः।

११.स्वरित- समाहार स्वरितः

 

                  

 

२०.    आभ्यन्तर प्रयत्न के अनुसार स्वरों के ४ भेद-

१.      संवृत- इ, , ,

२.      अर्द्धसंवृत- ए,

३.      अर्द्धविवृत- ऐ,

४.      विवृत-

१.अग्र- ई, , ऐ।

 २.मध्य- अ

३.पश्च- आ, ,

२१.    प्रयत्न के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण-

 

१.स्पर्शव्यञ्जन- कु, चु, टु, तु पु                         १.विवार

२.स्पर्श संधर्षी- च, , ,                             २.संवार

३.संधर्षी- फ, ब स, ज ख ग,                           ३.श्वास

४.अर्धस्वर- य,                                            ४.नाद

५.नासिक्य- ङ्, ञ्, ण्, न्, म्                              ५.अघोष

६.पार्श्विक- ल                                                 ६.घोष

७.लुण्ठित/प्रकम्पित-र                                      ७.अल्पप्राण

८.उत्क्षिप्त- ड़, ढ़                                             ८.महाप्राण

 

२२.    भारोपीय परिवार की भाषाएँ- संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, प्रा. फ्रांसीसी, अवेस्ता, ग्रीक, लैटिन, अंग्रेजी, रुसी, जर्मन, स्पेनीज, फ्रांसीसी, हित्ती, पुर्तगाली, इतालवी, फारसी, हिन्दी, बंगाली, गुजराती, मराठी, तोखारी

२३.    द्राविड़ परिवार- तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम, गोंडी, उराँव।

२४.    चीनीपरिवार- तिब्बती, बर्मी, स्यामी, गारो, बोडो, नागा

२५.    नियम- ग्रिम नियम, ग्रासमन नियम, वर्नर नियम, तालव्य नियम तथा मूर्धन्य नियम।

 

२६.    ग्रिम नियम-

१.      इस ध्वनि नियम का अविष्कार  प्रो. याकोब ग्रिम (१७८५-१८६३) ने किया है।

२.      इस नियम को ध्वनि-परिवर्तन नियम, लाउत-ध्वनि, फेशीबुंग-ध्वनि, साउण्ड-ध्वनि, शिफ्टिंग-ध्वनि आदि भी नाम दिये।

३.      प्रो. मैक्समूलर ने इसे ग्रिम-नियम (Grimm’s Law) का नाम दिया।

४.      प्रो. ओटो येस्पर्सन का कथन है कि इस नियम को Rask’s Law रास्क-नियम नाम दिया जाना चाहिए क्योंकि सर्वप्रथम यह नियम रास्क ने अपनी पुस्तक Undersogelse में प्रकाशित किया। रास्क के साथ ईरे का भी नाम इस नियम के अविष्कार में आता है।

५.      प्रो. ग्रिम ने इस नियम का विस्तृत वर्णन १८२२ ई.  में जर्मन-व्याकरण के द्वितीय संस्करण में किया ।

६.      ग्रिम नियम दो भागों में विभक्त है- १.प्रथम वर्णपरिवर्तन- यह वर्ण परिवर्तन ईसा के जन्म से पूर्व हो चुका था। इस वर्ण परिवर्तन में एक ओर संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, स्लावोनिक भाषाएँ हैं, इनमें मूल ध्वनि सुरक्षित है। दूसरी ओर गाथिक, निम्न जर्मन, अंग्रेजी, डच आदि भाषाएँ हैं, इनमें यह परिवर्तन हुआ।

क्, त्, प्  (अघोष अल्पप्राण) > ख् (ह्), थ्, फ् (महाप्राण)

ख् (ह्), थ्, फ् (महाप्राण) > ग्, द्, ब् (घोष अल्पप्राण)

ग्, द्, ब् (घोष अल्पप्राण) > क्, त्, प्  (अघोष अल्पप्राण)

 

२.द्वितीय वर्णनियम- इसका समय ७वीं और ८वीं शती ई. मे हुआ है। यह वर्ण-परिवर्तन केवल जर्मन भाषा के ही दो रूपों उच्च और निम्न में हुआ।

प्रथमवर्ण > द्वितीयवर्ण > तृतीयवर्ण

द्वितीयवर्ण > तृतीयवर्ण > प्रथमवर्ण

तृतीयवर्ण > प्रथमवर्ण > द्वितीयवर्ण

चतुर्थवर्ण > तृतीयवर्ण > प्रथमवर्ण

 

२७.    ग्रासमान नियम- हेर्मान ग्रासमान (१८०९-१८७७) भी जर्मन विद्वान् हैं। इन्होंने ग्रिम नियम को ही संशोधित किया है। इनके अनुसार जब दो महाप्राण एक साथ आये तो उनमें से प्रथम अल्प अल्पप्राण हो जाता है क्योंकि प्रथम ऊष्म ध्वनि से ह् ध्वनि निकल जाता है। यथा- धधामि > दधामि, पहले ध् को द् , ह् ध्वनि हट जाती है।

 

२८.    वर्नर नियम-  कार्ल वर्नर (१८४६-१८९६) भी जर्मन विद्वान् थे। इन्होंने भी अपने नियम में ग्रिम-नियम में ही संशोधन किया है। इनके अनुसार भारोपीय भाषा के शब्दों के क्, त्, प् को जर्मानिक भाषाओं में ह्, थ्, फ् तभी होता है जब इन क्, त्, प् के पूर्व उदात्त स्वर हो, यदि उदात्त स्वर इन क्, त्, प् शब्दों के बाद होगा तो इनके स्थान पर ग्, द्, ब् होते हैं।

 

२९.    तालव्यनियम- इस नियम को पता लगाने का श्रेय मुख्यरूप से विल्हेम थामसन, जोहन्स श्मिट और कालित्स को है। सोस्यूर का भी नाम इस विषय में आता है।

 

२०.    मूर्धन्य नियम- प्रो. फोर्तुनातोवा के नाम से यह मूर्धन्य-नियम प्रचलित हुआ। इस नियम के ढूँढने में प्रो. पॉट का नाम भी आता है।

 

३१.    वैदिक संस्कृत में ५२ ध्वनियाँ प्राप्त है।

३२.    संस्कृत में ४८ ध्वनियाँ प्राप्त है।

३३.    मानस्वर- मानस्वर को अंग्रीजी में कार्डिनल वावेल्स कहा जाता है। मानस्वरों के अध्ययन का कार्य सर्वप्रथम १९५३ के लगभग जान वलिस ने किया था। डेनियल जोन्स का स्वर-चतुर्भुज वर्तमान समय में सबसे अधिक प्रचलित है।

 

३४.    भारतीय आर्यभाषा की तीन अवस्थाएँ-

१.      प्राचीन भारतीय आर्यभाषाएँ- २५०० ई. पू. से ५०० ई. पू तक।

२.      मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएँ- ५०० ई. पू. से १००० ई. तक।

३.      आधिनिक भारतीय आर्यभाषाएँ- १००० ई. से वर्तमान समय।

 

३५.    ग्रिम नियम में ९ स्पर्शध्वनि है।

३६.    भाषा परिवर्तन के ६ बाह्य कारण है।

३७.    केन्टुमवर्ग के ४ भेद है।

३८.    शतमवर्ग की ७ शाखा है।

३९.    भाषाविज्ञानिकों  ने बलाघात  के ४ भेद स्वीकार किये है।

४०.    अर्थावबोध के ९ प्रमुख साधन बतायें।

 

Previous
Next Post »

if any question, you can comments.... ConversionConversion EmoticonEmoticon