पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी

पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी

पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, इस नाम से प्रथम बार गुरुकुल में परिचित हुआ। एक अग्रज ने पण्डित जी के विषय में कुछ रोचक तथ्य सुनाएँ, जिन्होंने अनायास ही मेरा मन पण्डित जी की ओर आकर्षित किया। हालांकि पण्डित जी के विषय में मेरा ज्ञान आज भी बहुत कम ही था क्योंकि जीवन की इस चकाचौंध में मुझे कभी अवसर ही नहीं मिला कि मैं उन्हें जान सकूँ। अवसर, नहीं शायद यह तो मेरी तसल्ली है सच तो यह है कि मैंने सिद्दत से कभी प्रयास ही नहीं किया होगा। जो कुछ भी हो, यह निश्चित है कि यह मेरा दुर्भाग्य रहा है।

          आज जब मैं पिताजी के पुस्तकालय को देख रहा था, तभी मेरी नजर पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी की जीवनी पर पडी। मैंने उसे उठाकर पलटा जो प्रायः मेरी आदत है क्योंकि जब मैं किसी नवीन पुस्तक को देखता तो उससे परिचित होना चाहता हूँ। लेकिन आज जीवन पुस्तकों से दूर होता जा रहा है इसलिए केवल देखकर यह वहम् पाल लेता हूँ कि इस पुस्तक को मैंने जान लिया। जब मैंने इस पुस्तक को खोला तो प्रथम पंक्ति यह नजर आई-

“सर्वप्रथम सन् १८९१ में लाला लाजपतराय ने पण्डित जी का जीवनचरित् अंग्रेजी में लिखा”

          इस पंक्ति से यह तो निश्चय हो गया था कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं क्योंकि जिसके बारे में लाला लाजपतराय ने लिखा हो वह अवश्य अमूल्य होगा क्योंकि लाला जी का सम्पूर्ण जीवन देशहित में ही निकला है। इतनी व्यस्तता में जो किसी की जीवनी लिखता हो तब यह निश्चित है कि विषयवस्तु में ठोसता अवश्य है।  मैंने दो दिन के परिश्रम से लगभग २०० पेज की पुस्तक को पढा। लेखक ने इसमें भरपूर रिफ्रेंस दिये है जो जीवनी की रोचकता को अवश्य भंग करती है लेकिन निश्चय ही ज्ञान में वृद्धि करती है। इस पुस्तक का शीर्षक “पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी” है तथा लेखक का नाम रामप्रकाश जी है। यह अनीता आर्ष प्रकाशन, पानीपत, हरियाणा से छपी है तथा यह इसका २००२ का संस्करण है।

पण्डित जी के बारे में कुछ जानकारी-

          पण्डित गुरुदत्त का जन्म मुलतान (पाकिस्तान) में २६ अप्रैल १८६४ को हुआ। इनके पिता का नाम रामकृष्ण था जो पेशे से पंजाब शिक्षा विभाग में अध्यापक थे। इनकी फारसी में अत्यन्त पकड थी।  पण्डित जी के माता-पिता ने सन्तान के न होने का दुःख अनेक वर्षों तक भोगा था क्योंकि पण्डित जी से पहले उनकी १८ सन्तानों की जन्मोपरान्त मृत्यु हो गई थी। अतः गुरुदत्त का जन्म उन्होंने गुरु की देन ही स्वीकार किया था। सम्भवतः इसी कारण हरिद्वार के गोस्वामी राधेलाल ने इनको “गुरां दत्ता” कहा था। जिसको बाद में पण्डित जी ने स्वयं ’गुरुदत्त’ कर लिया। पण्डित जी का प्रथम नाम मूला था जो राशि के आधार पर था तथा कुलगुरु द्वारा प्रदत्त नाम बैरागी था। रामकृष्ण ने पुत्र को फारसी तथा अंग्रेजी का ज्ञान बचपन में ही दे दिया था। विद्यार्थीकाल में इतने प्रबुद्ध छात्र थे कि कोई छात्र तो क्या अध्यापक भी इनसे वाक्युद्ध नहीं करता था। पण्डित जी ने प्रारम्भ में अंग्रेजी को आधार बनाकर पाश्चात्य शिक्षा को ग्रहण किया था अतः इसका उन पर असर होना स्वाभाविक था। कहते है कि वे संस्कृत के शिक्षकों से प्रायः बहस किया करते थे जिसके कारण उन्हें कक्षा से निकाला जाया करता था। यह सत्य है कि पण्डित जी का संस्कृत सिखने का उद्देश्य उसमें निहित भ्रान्तियों को जानना था लेकिन जब एक बार वह संस्कृत के सम्पर्क में आये तो इसे कभी छोड नहीं पाये। उन्होंने स्वयं ही स्वामी दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पढ ली थी। इसके उपरान्त उन्होंने संस्कृत में शिक्षा हेतु आर्यसमाज मुलतान की सदस्यता ग्रहण कर ली। उन्होंने यहाँ पाणिनि अष्टाध्यायी के साथ वेद भाष्य का अध्ययन किया। कॉलेज जाने से पूर्व इनकी संस्कृत ग्रन्थों पर अच्छी पकड हो गई थी, खासकर व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी पर।  इन्होंने १८८१ में गवर्मेण्ट कॉलेज लाहौर में प्रवेश लिया। यही पर इनकी मुलाकात हंसराज, लाला लाजपतराय तथा शिवनाथ से हुई। उस समय इनके जितने भी मित्र थे वे सब इतिहास में पूजनीय है। इनके प्रभाव से ही लाला लाजपतराय ने आर्यसमाज की सदस्यता ग्रहण की थी। लाला लाजपतराय फारसी के अच्छे विद्वान् थे अतः सामान्य जनता के लिए आर्यसमाज ने इनके उद्बोधनों को अनेक बार करवाया है। पण्डित जी के प्रभाव से ही लाला जी ने संस्कृत पढने में रुचि ली है।

          पण्डित जी ने १८८२ में “स्वतन्त्र वाद-विवाद सभा” स्थापित की थी जिसमें प्रायः सभी मित्रों का आना होता था। क्योंकि पण्डित जी ने पाश्चात्य दार्शनिकों से ही अपना जीवन प्रारम्भ किया था अतः उनका प्रभाव उन पर अभी भी छाया था। वे प्रायः वाद-विवाद में भारतीय संस्कृति के विरोध में खडे दिखाई देते थे जिसके कारण उनके मित्र उन्हें नास्तिक कहने लगे थे। इन्होंने लाला लाजपतराय के साथ १८८३ में दो पत्रों का सम्पादन कार्य प्रारम्भ किया जिसमें एक उर्दू पत्र देशोपकारक तथा दूसरा अंग्रेजी पत्र “द रिजेनरेटर” है। इसी वर्ष किसी दुष्टात्मा ने स्वामी दयानन्द को जहर दे दिया था। स्वामी जी की सेवा के लिए आर्यसमाज लाहौर ने गुरुदत्त तथा जीवनदास को भेजा। यह प्रथम समय था जब वे स्वामी दयानन्द से मिले थे इससे पूर्व वे केवल स्वामी जी के लेखों को पढते रहे थे। स्वामी दयानंद ने अन्तिम समय में केवल गुरुदत्त को ही अपने पास रहने की आज्ञा दी थी। शायद स्वामी जी उनकी प्रतिभा को भाप गए थे। स्वामी जी की मृत्यु के उपरान्त पण्डित जी ने आर्यसमाज के साथ उनकी याद में दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल की स्थापना का निश्चय किया। १८८५-८६ में इस स्कूल की स्थापना कर दी गई। वे इसके संस्थापक सदस्य थे तथा हंसराज इसके प्रधानाध्यापक थे।  इस प्रकार डी. ए. वी. स्कूल की स्थापना हुई। बाद में इसके उद्देश्यों को लेकर कई मतभेदों का सामना करना पढा परन्तु स्कूल की निरन्तरता में कोई कमी नहीं आई। इसके उपरान्त पण्डित का जीवन लगभग स्कूल को बढाने तथा दयानन्द के आदर्श को स्थापित करने में लगा रहा। २६ वर्ष के जीवन के उपरान्त १९ मार्च १८९० को गुरुदत्त ने अपने आप को प्रभु की शरण में उन्मीलन कर दिया। यह आर्यसमाज तथा संस्कृत-प्रेमियों के लिए एक बडी क्षति थी।

पण्डित जी ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन के साथ साहित्य सृजन की परम्परा को भी बनाए रखा है। उन्होंने अनेक लेखों को प्रकाशित करवाया तथा उपनिषदों पर भी अपनी लेखनी चलाई। हंसराज तथा लाला लाजपतराय हमेशा गुरुदत्त से प्रभावित रहे हैं।

           ये लेख केवल आपको पण्डित जी के समीप लाकर खडा कर सकता है लेकिन उनसे परिचित नहीं करा सकता है। यदि आप उनके जीवन को समझना चाहते है तो आपको उनसे सम्बन्धित ग्रन्थों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उनके विषय में पढा।

  

धन्यवाद!


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