भारतीय चिकित्सा : आयुर्वेद

भारतीय चिकित्सा : आयुर्वेद

 

सुश्रते सुश्रतो नैव वाग्भटे नैव वाग्भट।

चरके चतुरो नैव स वैद्य किं करिष्यति॥

       

यदि यह प्रश्न किया जाये कि स्वस्थ रहना किसे पसंद नहीं है? तो शायद ही कोई इसमें अपनी सहमती प्रदान करेगा। क्योंकि स्वस्थ रहना स्वयं के लिए ही जरुरी नहीं है बल्कि सामाजिक प्राणी होने के नाते यह आपका कर्त्तव्य है। यही तो कारण है कि आज देश को कोराना महामारी के चलते लगभग तीन महिनों से बंद किया हुआ है साथ ही सामाजिकों ने भी घर पर रुककर उसका समर्थन किया है।

        यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि “शरीर है तो रोग है”। हमारे शरीर में वात, पित्त तथा कफ के बदलाव से रोग होना स्वाभाविक है। इतिहास में विरले ही कुछ प्राणी रहे होंगे जिन्हें रोग ने ग्रस्त न किया हो। वह भी तभी सम्भव हुआ होगा जब उन्होंने अपने शरीर का कन्ट्रोल करना सीखा हो। तो यह निश्चित है कि जब से प्राणी का उदय हुआ तभी से रोग ने भी अपना रूप ग्रहण किया। भारतीय सभ्यता जो विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में उच्च है वह भी इस रोग तथा उसके निदान होने के उपायों से अपरिचित न रही। भारतीय परम्परा की चिकित्सा इतनी विशाल थी कि आज भी उसके उपायों को कोई टक्कर नहीं दे सकता है। यही कारण था कि प्राचीन भारतीय चिकित्सकों को विदेश में बडा सम्मान था। आज भी कई देशों के इतिहास यह स्पष्ट करते है कि भारतीय चिकित्सा हमेशा उपयोगी रही है। इसी चिकित्सा के ग्रन्थ को भारतीय परम्परा में आयुर्वेद नाम से जाना जाता है। आयुर्वेद का अर्थ है जो आयु के विषय में जानता है तथा उसकी वृद्धि का उपाय बताता, वह आयुर्वेद है। शास्त्र भी यही कहते है कि- आयुरस्मिन् विद्यते, अनेन वा आयुर्विन्दतीति आयुर्वेद।

आयुर्वेद का सीधा सम्बन्ध वेद से है। वेद वह जो सभी विद्याओं के ग्रन्थ है उनमें आयुर्वेद के उपायों का वर्णन प्राप्त है। आयुर्वेद के सभी सिद्धान्तों का आधार ही अथर्ववेद है तथा आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है। अथर्ववेद तथा अन्य वेदों में आयुर्वेद के सिद्धान्त बिखरें रूप में थे। जो प्रायः वैदिक ऋषियों का अनुभव था। परम्परा में इन सिद्धान्तों ने एक नवीन परम्परा का रूप ले लिया जिसे आज हम आयुर्वेद कहते है। आयुर्वेद में भारद्वाज, सुश्रुत आदि आचार्यों ने ग्रन्थ लिखकर इसे सामान्य लोगों तक पहुँचाने का कार्य किया है। यदि आयुर्वेद के विकास की बात करें तो इसके प्रामाणिक तथा प्राचीन तीनों ग्रन्थों से यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक समय में यह विद्या देवताओं के पास थी, जो उन्हें ब्रह्मा से प्राप्त हुई थी। इन्द्र तक सभी आचार्यों का एक मत है इसके उपरान्त तीनों ग्रन्थों में आचार्यों की परम्परा में भेद है-

चरकसंहिता में- ब्रह्मा > दक्ष > अश्विनी > इन्द्र > भरद्वाज > आत्रेय > अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत, क्षारपाणि

सुश्रुतसंहिता में- ब्रह्मा > दक्ष > अश्विनी > इन्द्र > धन्वन्तरी > दिवोदास > सुश्रुत, औपष्टोनव, वैतरण, औरभ्र, पौष्कलावत, करवीर्य, गोपुररक्षित, भोज

काश्यपसंहिता में- ब्रह्मा > दक्ष > अश्विनी > इन्द्र > काश्यप, वशिष्ठ, अत्रि, भृगु > इनके पुत्र

        इस प्रकार आयुर्वेद की परम्परा का तीनों ग्रन्थों में कुछ भिन्न रूप से वर्णित किया है। अपनी भिन्न-भिन्न विशेषता से इन तीन आचार्यों ने आयुर्वेद में उच्च स्थान प्राप्त किया है। व्याकरण परम्परा के सदृश इन्होंने भी अपने पूर्वज अनेक आचार्यों के नाम से अपने ग्रन्थों में सिद्धान्तों का वर्णन किया है। इसमें सर्वप्रथम भरद्वाज का नाम है जो प्राचीन ग्रन्थ चरकसंहिता की परम्परा के है। इनका कार्य कायचिकित्सा पर आधारित है। इसी परम्परा का दूसरा नाम है आचार्य धन्वन्तरी का। आचार्य धन्वन्तरी ने शल्य चिकित्सक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की है। इनकी परम्परा में आचार्य सुश्रुत का अत्यन्त योगदान है। उनकी सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा का आधार ग्रन्थ है। तीसरी परम्परा के आचार्य काश्यपऋषि है। काश्यप का कार्य बालचिकित्सा पर आधारित है। इनका ग्रन्थ काश्यपसंहिता के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसमें कौमारभृत्य का वर्णन है।

आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थ-

चरक संहिता- आयुर्वेद की सबसे अधिक उपयोगी पुस्तक चरक संहिता है। इसमे कायचिकित्सा का वर्णन है। जैसा कि नाम से ज्ञात होता है कि यह आचार्य चरक की रचना है। लेकिन यह मात्र चरक की रचना न होकर अनेक आचार्यों का योगदान है। सर्वप्रथम चरकसंहिता का उपदेश आत्रेय पुनर्वसु ने किया जिसे उनके शिष्य ने संस्कारित करके अपने शिष्य चरक को पढाया। चरक ने इसे पुस्तक का रूप दिया। इसके बाद दृढबल ने इसमें कुछ अंशों को जोडकर इसका आकार और भी विस्तृत कर दिया। इस प्रकार चरक संहिता का विकास हुआ। यह संहिता लगभग ईसा से पूर्व द्वितीय-प्रथम सदी में विकसित हो चुकी थी। चरक संहिता में ८ स्थान तथा १२० अध्याय है। इसमें सूत्रस्थान, निदानस्थान, विमानस्थान, शरीरस्थान, इन्द्रियस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान तथा सिद्धिस्थान ये आठ स्थान है।

चरकसंहिता आयुर्वेद की इतनी प्रसिद्ध कृति थी कि इस पर अनेक आचार्यों ने टीकाएँ लिखी है।

1.    सर्वप्राचीन टीकाकार भट्टार हरिश्चन्द्र है। इनकी टीका “चरकसंहिताटीका” के नाम से प्रसिद्ध है।

2.    जैय्यट की “निरन्तरपदव्याख्या” टीका है। जैय्यट का अयुर्वेद पर व्यापक कार्य है। इन्होंने अधिकतर संहिताओं पर टीकाएँ लिखी है।

3.    स्वामीकुमार की चरकपञ्जिका टीका।

4.    चक्रपाणि की आयुर्वेद दीपिका।

5.    शिवदास सेन की तत्त्वचन्द्रिका टीका।

सुश्रुतसंहिता- आयुर्वेद की दूसरी प्रसिद्ध कृति सुश्रुत की संहिता है। चरकसंहिता के समान यह भी परम्परा से सुश्रुत तक आई हुई है। सर्वप्रथम धन्वन्तरी ने दिवोदास को शल्यचिकित्सा का ज्ञान दिया था। इसके उपरान्त दिवोदास के उपदेश को सुश्रुत ने संकलित  किया है। सुश्रुत संहिता को चरकसंहिता के समान प्राचीन माना जाता है। अतः इसे भी हम प्रथम सदी के आसपास मान सकते है। वैसे तो सुश्रुत नाम पाणिनि से भी पूर्व मिलता है, पुनरपि उपलब्ध संहिता को आचार्यों ने प्रथम सदी की कृति स्वीकार किया है। सुश्रुत संहिता शल्य चिकित्सा पर आधारित ग्रन्थ है। यह ६ स्थानों में विभाजित है- मूत्रस्थान, निदानस्थान, शारीरस्थान, चिकित्सा स्थान, कल्पस्थान तथा उत्तरतन्त्र।  यह १८९ अध्यायों में विभाजित है।

सुश्रुत संहिता के टीकाकार-

१.   माधवकर की सुश्रुतशल्यवार्तिक टीका।

२.   जेय्यट की सुश्रुतटीका।

३.   गयदास की सौश्रुतपंजिका टीका।

४.   चक्रपाणि की भानुमति टीका।

५.   डल्हण की निबन्धसंग्रह टीका।

रसरत्नसमुच्चय- यह आयुर्वेद का तीसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी रचना वाग्भट ने की है। वैसे वाग्भट के नाम से अन्य तीन ग्रन्थों के उद्धरण प्राप्त होते है। जिसमें अष्टांगसंग्रह, मध्यसंहिता तथा अष्टांगहृदय है। आयुर्वेद की परम्परा में चरक तथा सुश्रुत के बाद वाग्भट की कृति को ही सम्मान प्राप्त हुआ। अवान्तर ग्रन्थों में वाग्भट को सबसे अधिक उद्धृत किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि वाग्भट ने अपने सभी ग्रन्थों में चरक तथा सुश्रुत से इतन अन्य आयुर्वेदाचार्यों के सिद्धान्तों की भी चर्चा की है।

आर्युवेद की परम्परा में वैसे तो अनेक ग्रन्थ है लेकिन आयुर्वेद को समझने के लिए ये तीन ग्रन्थ ही पर्याप्त है। इनके अतिरिक्त कुछ महत्त्वपूर्ण संहिता इस प्रकार है-

१.   काश्यप संहिता- काश्यप

२.   खारणाद संहिता- खारणाद

३.   शार्ङ्गधरसंहिता- शार्ङ्गधर

४.   रुग्विनिश्चय या माधव निदान- माधव

५.   चिकित्सा-कलिका- तिसट

आयुर्वेद आज भी हमसे दूर नहीं है। कहा जाता है कि भारत का हर नागरिक एक चिकित्सक है क्योंकि जैसे ही अपनी समस्या को किसी के सामने प्रकट करते है वैसे ही उसके प्रति निदानात्मक विचार आना आरम्भ हो जाते है। घर के बुजुर्ग प्रायः घरेलू नुस्खा के माध्यम से आयुर्वेद को लोक-जीवन में चला रहे है। इसके लाभ अवश्य है परन्तु गलत जानकारी प्राणघातक भी हो सकती है।

इस प्रकार हम आयुर्वेद की परम्परा को समझ सकते हैं। तथा उसका अध्ययन करके लोगों तक सही जानकारी भी प्रसारित कर सकते हैं।

 

धन्यवाद

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