महाभारत को भारतीय संस्कृति के मूल ग्रन्थों में स्वीकार किया जाता है। रामायण तथा महाभारत दोनों आदि काव्यों की गणना में उच्चतम स्थान रखते है। महाभारत की रचना मतभेदों के साथ भी लगभग ईसा के ६००-९०० वर्ष पूर्व स्वीकार की जाती है। जैसा कि हम जानते है कि महाभारत की रचना वेदव्यास ने की है। क्योंकि यह ग्रन्थ विस्तृत रूप में लिखा जाना था अतः इसके लेखन कार्य हेतु गणेश नामक किसी लेखक को बुलाया गया था जिसे हम आज पुराणों के आधार पर भगवान शिव का पुत्र गणेश नाम देते है। यह कौन थे यह एक विचारणीय प्रश्न है परन्तु ध्यान देने की बात यह है कि भारत में लेखन हेतु एक ऐसा समुदाय था जो केवल लेखन कार्य करते थे। जिसे कायस्थ नाम दिया जाता था। शायद गणेश जी इसी समुदाय से सम्बन्ध रखते हो । महाभारत ग्रन्थ भारतीय संस्कृति से रुबरु है अतः इस ग्रन्थ का पठन निरन्तर इस देश में चलता रहा है। और केवल भारत में नहीं परन्तु आस-पास के सभी देशों पर महाभारत का प्रभाव आज भी दिखाई देता है।
हमारी यह पोस्ट महाभारत के सम्पादन पर है। प्रश्न यह है कि किसी भी ग्रन्थ का सम्पादन क्यों करें? तो आपको बताना चाहुँगा कि आज जिन ग्रन्थों को हम अपने सामने सुन्दर सी पुस्तकों के रूप में देखते है वे एक लम्बे सफर से बचकर हम तक पहुँच सकें है। क्योंकि प्राचीन काल में हमारे पास कोई प्रेस तो हुआ नहीं करता था जिससे हम पुस्तकों का आसानी से प्रकाशन करा सकें। पुस्तकों को पत्तों, छाल तथा चमडा आदि उपकरणों पर लिखा करता थे जिनका संरक्षण करना अत्यन्त कठीन कार्य हुआ करता था। ऐसे ही महाभारत का भी लेखन हुआ जो पूर्व में श्रुति परम्परा से निरन्तर प्रवाह करता हुआ आगे बढ रहा था। श्रुति परम्परा के जहाँ अनेक फायदे है वही उसमें कुछ दोष भी आचार्यों ने स्वीकार किये है जिसमें श्रवणदोष एक महत्त्वपूर्ण दोष माना जाता है जिसमें गलत सुनने से गलत ज्ञान का स्मरण हो जाता है। और ये परम्परा में आगे बढ कर एक नया रूप ले लेता है। ऐसा कई बार होने के कारण इन ग्रन्थों में पाठभेद हो जाता है। अतः इस स्थिति में किस पाठ को ग्रहण किया जाये यह एक कठीन काम होता है। अतः सही पाठ को प्राप्त करने हेतु सम्पादन किया जाता है।
महाभारत का सम्पादन भारत की ज्ञान परम्परा के लिए अनिवार्य कार्य था जिसका अंदाजा आचार्यों को बहुत पहले ही हो गया था। पुस्तकों से ज्ञात होता है कि इसकी शुरूआत एफ. विंटरनित्ज ने किसी अंतर्राष्ट्रिय प्राच्यविद्या सम्मेलन में १८९० में की थी। उन्होंने अपने भाषण में इसे एक आवश्यक कार्य माना था। इसके बाद इस कार्य को १९०८ में ल्युडर्स ने आरम्भ करने का प्रयास किया मगर उनका कार्य प्रकाशित नहीं हो सका। इसके अनन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर कार्य करने का प्रयास किया मगर कोई कार्य सम्पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सका। अन्ततः भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पुणे ने इस कार्य को पूर्णरूप दिया।
१९१९ में वी. एस. सुक्थंकर द्वारा महाभारत का सम्पादन प्रारम्भ हुआ। आपको जानकर हैरानी होगी महाभारत का सम्पादन होने में ४७ वर्ष लगे है यह कार्य अप्रैल १९१९ से सितम्बर १९६६ में पूर्ण हुआ। महाभारत में १८ पर्वों पर भिन्न-भिन्न आचार्यों के मार्गदर्शन में सम्पादन कार्य किया गया है। महभारत में ८९००० से भी ज्यादा श्लोक है जो लगभग १५००० पृष्ठों में निबद्ध है। महाभारत का सम्पादन १९ वोल्यूम में प्रकाशित हुआ है। महाभारत का प्रथम वोल्यूम सुक्थंकर ने किया है इन्होंने ही सम्पादन हेतु प्रमाणिक एवं तर्कपूर्ण विधियों का प्रयोग निर्धारित किया था। ऐसे ही सभापर्व- फ़्रेन्कलिन एडगर्टन १९४३ में, विराटपर्व- रघुवीर, १९३६ में, उद्योगपर्व- एस. के. डे. १९४० में, भीष्मपर्व- एस के बेल्वल्कर, १९४७ में, द्रोणपर्व- एस के डे, १९५८ में, कर्णपर्व- पी एल वैद्य, १९५४ में, शल्यपर्व- आर एन दाण्डेकर, १९६१ में किया गया। महभारत का पूर्ण प्रकाशन डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, भारत के राष्ट्रपति के द्वारा १९६६ में किया गया है। महभारत के सम्पादन में दक्षिणी पाण्डुलिपियों को अधिक प्रमाणिक स्वीकार किया गया है क्योंकि उत्तरभारत की बजाय दक्षिण भारत में महाभारत के पाठ सुरक्षित रहे है। क्योंकि उत्तरभारत में लोगों का मानना था कि घर में महाभारत रखने से घर में लडाई होती है। जिसके कारण लोगों ने इसके संरक्षण में अधिक प्रयास नहीं किया। अतः इस कारण महाभारत का दक्षिणी पाठ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है।
अतः इस प्रकार महाभारत जो एक विस्तृत ग्रन्थ है उसका प्रकाशन कठीन प्रयास से सफल हुआ है। यह पाठ अनेक तर्कों से पूर्ण होकर निर्धारित किया गया है अतः इसे हम सहज स्वीकार कर सकते है।
धन्यवाद,
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