#समीक्षित पाठ-सम्पादन #Critical Text-Editing
समीक्षित पाठ-सम्पादन की आवश्यकता का कारण है ’पाठ में परिवर्तन’। पाठ के परिवर्तन में प्रकृति, वातावरण, लिपिकार, आक्रमण आदि अनेक कारण रहे हैं। प्राचीन काल में ग्रन्थों की रचना हस्तलेखन के माध्यम से की जाती रही है तथा साथ ही लेखन के ऐसे उपकरण थे जो प्रकृति से प्राप्त थे जैसे –ताड-पत्र, भूर्ज-पत्र, चमडा, शिला, स्तम्भ आदि। इन सभी उपकरणों की प्राकृतिक संरचना होने के कारण परिवर्तन निश्चित था। जिसके कारण अनेक कृतियों का स्वरूप ही परिवर्तित हो गया। पाठभेद में वातावरण भी एक मुख्य कारण है क्योंकि भारत का वातावरण अत्यधिक परिवर्तनशील है जो वस्तु के रख–रखाव लिए हानिकारक है। लिपिकार के द्वारा भी पाठ में परिवर्तन किया जाता रहा है जिसमें उसकी अज्ञानता, विद्वता या इन्द्रिय दोष आदि का प्रभाव रहा है। आक्रमण ने भी शुद्ध पाठ पर प्रभाव डाला है। इस प्रकार अनेक कारणों से होते हुए जब लेखक का पाठ हमारे समाने प्रस्तुत होता है तो वह अनेक परिवर्तनों से युक्त रहता है।
भारत में इस परम्परा को पाश्चात्य राष्ट्र के बाद का माना जाता है परन्तु प्रो. राजेन्द्र मिश्र ने अपने ग्रन्थ में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हमारे प्रातिशाख्य ग्रन्थ पाठालोचन के ग्रन्थ रहें हैं। चारों वेदों की अनेक शाखाएँ है जैसा कि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लगभग 1131 शाखाओं की चर्चा की है। अब प्रश्न यह है कि चारों वेदों की इतनी शाखा कैसे सम्भव है? अतः इन सभी प्रश्नों के समाधान के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थों की रचना की, जो व्याकरण के नियम सहित पाठ-भेद का निरूपण करते है। अतः इस प्रकार प्रातिशाख्य को पाठालोचन का शास्त्र माना जाता है। मिश्र जी ने वेद के शाखा-भेद के मुख्य तीन कारण बताने का प्रयास किया है-१. वर्तनी- अर्थात् एक शब्द के लिये भिन्न-भिन्न शाखा में भिन्न वर्तनी का प्रयोग किया गया जैसे कि सरिट्ह / सरिट्ड्ह / सरिट्ड्ढ्ह। अतः यह भी एक कारण है शाखा भेद का। २. एक ही मन्त्र का पृथक् विनियोग- वेदों की शाखाओं में एक ही मन्त्र को भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त किया है जैसे- राजन्यस्य वधाय / भ्रातृव्यस्य वधाय ३. सूक्तों अथवा मन्त्रों के पौर्वपर्य में परिवर्तन होने के कारण भी शाखा भेद संभव है साथ ही विकृतिपाठ (जटा-पाठ, माला-पाठ, शिखा-पाठ, रेखा-पाठ, ध्वज-पाठ, दण्ड-पाठ, रथ-पाठ, घन-पाठ) भी शाखा भेद का एक कारण माना जाता है । इसी प्रकार नाट्यशास्त्र में जब रसों की चर्चा की जाती है तो एक श्लोक के अनुसार रस की संख्या आठ बताई गई- शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः। वीभत्साद्भुत संज्ञौचेत्यष्टौ नाट्येरसाः स्मृताः॥ तथा वहीं किसी भिन्न पाठ में रस की संख्या नौ बताई गई है- शृङ्गारहास्यकरुणरौद्रवीर भयानकाः। बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नाट्ये नवरसाः स्मृताः॥ अतः इन दोनों श्लोकों के प्राप्त होने पर अभिनवगुप्त ने अभिनवभारती में इसका विस्तृत विवरण दिया जो पाठालोचन का रूप है। एक अन्य स्थान पर कालिदास का श्लोक प्राप्त होता है-
द्वयं गतं सम्प्रति शोचनीयतां समागम प्रार्थनया कपालिनः।
कला च सा चान्द्रमसी कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्र कौमुदी॥
प्रस्तुत श्लोक में ’कपालिनः’ शब्द के स्थान पर ’पिनाकिनः’ पाठ भी प्राप्त है। अतः अब परवर्ती अचार्यों के सामने यह समस्या है कि इसमें से कौन-सा पाठ कालिदास का है। अनेक आचार्यों ने कपालिनः के स्थान पर पिनाकिनः को सार्थक पाठ माना क्योंकि प्रस्तुत श्लोक विवाह के प्रसंग में आया है अतः किसी शुभकार्य के समय कपालिनः जैसे भयावह शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पिनाकिनः पराक्रम का अर्थ प्रदान करता है जो प्रत्येक स्त्री अपने पति में होने का विश्वास करती है। अतः इस प्रकार भारतीय ग्रन्थों के लिए पाठालोचना कोई नवीन विषय नहीं रहा है। यह एक विस्तृत परम्परा में किया गया कार्य है। जिसके फलस्वरूप भाष्य, टीका, वृत्ति आदि की रचना होती रही।
सर्वप्रथम तो हमारे सामने यह कार्य था कि जो सामग्री हमें पाण्डुलिपि के रूप में प्राप्त होवें। पुनः उनका संग्रहण करके उनको सम्पादित किया जाये। इस परम्परा का निर्वाह १८वीं शताव्दी से ही चला आ रहा है। पाश्चात्य तथा भारतीय अनेक विद्वानों ने प्राप्त पाण्डुलिपियों का कठीन परिश्रम से सम्पादन कार्य किया, और यह भी कह सकते है कि प्राप्त पाण्डुलिपियों का सम्पादन कार्य प्राय समाप्त होने वाला है। ग्रन्थों के सम्पादन कार्य होने के उपरान्त एक ऐसी परम्परा का आगमन हुआ जिसका लक्ष्य लेखक के मूल-पाठ तक जाना है। यह कार्य विज्ञान की अवधारणा को साथ में लेते हुए, एक ऐसे परिवर्तन की ओर अग्रसित है जो अनेक भारतीयों को अचम्भित कर देगा। सरल शब्दों में कहें तो जिन आचार्यों का आज उनके कार्यों के कारण आदर किया जा रहा है यदि उनके कार्यों पर ही प्रश्न चिह्न खडा कर दिया जाये तो शीघ्र समझना कठीन है। परन्तु यदि इसे वैज्ञानिक रूप में देखे तो यह कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय सिद्ध होगा। भारतीय परम्परा के महाभारत तथा रामायण दो बडे काव्यों का सम्पादन कार्य सम्पूर्ण हो गया है।
समीक्षित पाठ-सम्पादन के सिद्धान्त-
समीक्षित पाठ-सम्पादन पर अनेक आचर्यों ने अपने विचारों की आहुति प्रदान की है। समीक्षित पाठ-सम्पादन किस प्रकार किया जाए तथा उसके क्या सिद्धान्त हो सकते है? इन प्रश्नों के उत्तर में आज हमारे सामने कई विकल्प प्रस्तुत हैं, पुनरपि जो आचार्यों द्वारा प्रमुख माने गए सिद्धान्त हैं वे संख्या की दृष्टि से तीन है- स्वैच्छिक समीक्षित पाठ-सम्पादन, तुलनात्मक समीक्षित पाठ-सम्पादन तथा शास्त्रीय समीक्षित पाठ-सम्पादन ।
१. स्वैच्छिक समीक्षित पाठ-सम्पादन - प्रस्तुत पाठालोचन के सिद्धान्त में स्वेच्छा का अत्यधिक प्रभाव है। ऐसे पाठ सम्पादन में सम्पादक को कृति की एक ही प्रतिलिपि प्राप्त होती है जिसके आधार पर वह पाठ का निर्धारण करता है। यहाँ तार्किकता का अभाव है यद्यपि सम्पादक अपने संपूर्ण सामर्थ्य से पाठ निर्धारित करता है पुनरपि स्वैच्छिक पाठ की तार्किकता स्थापित नहीं हो पाती। स्वैच्छिक समीक्षित पाठ-सम्पादन को आचार्यों ने निम्न रूप में स्वीकार किया है
२. तुलनात्मक समीक्षित पाठ-सम्पादन - प्रस्तुत सम्पादन के नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें तुलनात्मक प्रणाली का प्रयोग वांछनीय है। तुलनात्मक समीक्षित पाठ-सम्पादन में दो या दो से अधिक प्रतिलिपियों की परस्पर तुलना की जाती है। यहाँ सभी प्रतिलिपि को महत्व दिया जाता है पुनरपि कठीन-पाठ तथा प्राचीन पाठ को अधिक स्वीकार किया जाता है। इस सिद्धान्त में कुछ तार्किकता का प्रभाव रहता है परन्तु किसी एक व्यक्ति के द्वारा सम्पादित पाठ में स्वेच्छा का भाव तो स्पष्ट यहाँ भी होता है।
३. शास्त्रीय समीक्षित पाठ-सम्पादन - शास्त्रीय समीक्षित पाठ-सम्पादन वैज्ञानिक पाठालोचन है। यह परम्परा पाश्चात्य राष्ट्र की है। इस परम्परा में किसी पाठ के निर्धारण में उसकी तार्किकता तथा वैज्ञानिकता का होना अत्यन्त आवश्यक है। इस पाठालोचन में स्वेच्छा का अभाव रहता है तथा समय पर भी कोई पाबन्द नहीं रखा जा सकता है। पुणे से सम्पादित महाभारत तथा बडौदा से सम्पादित रामायण शास्त्रीय पाठालोचन के रूप में उदाहरित है।
अतः इस प्रकार मुख्य रूप से पाठालोचन के तीन सिद्धान्त हैं जिनमें शास्त्रीय समीक्षित पाठ-सम्पादन एक वैज्ञानिक प्रकिया से संपादित किया जाना वाला सिद्धान्त है।
समीक्षित पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया-
समीक्षित पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आज के संदर्भ में समीक्षित पाठ-सम्पादन के अन्तर्गत दो परिस्थितियाँ उपलब्ध है प्रथम एक ऐसे पाठ का समीक्षित पाठ-सम्पादन करना जिसका सम्पादन पूर्व किसी आचार्य ने कुछ पाण्डुलिपियों के आधार पर किया हो। तथा दूसरा नवीन सम्पादन अर्थात् जिस ग्रन्थ का केवल सम्पादन हुआ हो या अभी वह पाण्डुलिपि के रूप में हो। समीक्षित पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया में अनेक कार्यों को किया जाता है। जिसमें सर्वप्रथम हस्तलेखों का संकलन करना पुनः संकलित पाठ का संचयन, परीक्षण, वर्गीकरण, पाठसाम्य आदि कार्य किये जाते है।
vहस्तलेखों का संकलन- ग्रंथ के सम्पादन के लिए प्रथम आवश्यक कार्य पाण्डुलिपियों का संकलन करना है संपादक का यह कर्त्तव्य है कि वह ग्रंथ से संबंधित सभी साक्ष्य जो अधिकांश हस्तलिखित ग्रंथों के रूप में होंगे, उनको खोजकर एकत्रित करें। संकलन का रूप दो प्रकार का होगा। प्रथम, मुख्य साक्ष्य के संकलन कार्य में पाण्डुलिपियों का संकलन किया जाये, जो विभिन्न लिपियों में प्राप्त किया जाता है। द्वितीय, अवान्तर साक्ष्य में अनुवादित पाठ, लोककथा तथा अन्य ग्रन्थों में उल्लेखरूप में प्रचलित पाठ का संकलन किया जाता है। रामायण तथा महाभारत के सम्पादन कार्य में दोनों साक्ष्यों का विशेष योगदान रहा है क्योंकि इन ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों के साथ अवान्तर-साक्ष्य की भी एक लम्बी परम्परा रही है। अतः किसी भी समीक्षित पाठ-सम्पादन में केवल उसकी पाण्डुलिपियों से ही सम्पादन कार्य संभव नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए नाट्यशास्त्र में किसी पाठ का निर्धारण उसकी पाण्डुलिपि से नहीं हो पाया था जो बाद में किसी अन्य ग्रन्थ में उपस्थित होने से निर्धारित हो पाया। अतः समीक्षित पाठ-सम्पादन में उन सभी अवान्तर साक्ष्यों का संकलन करना अनिवार्य है जो पाठ को मूल लेखक की कृति तक ले जाने में सहायक हो।
vपरीक्षण विधि- पाठ-संकलन के पश्चात् द्वितीय कार्य प्राप्त सामग्री का परीक्षण करना होता है। पाठ के संकलन में हम उन सभी सामग्री का समावेश करते है जो हमारे सम्पादन कार्य में सहायक हो। हस्तलेखों के परीक्षण में प्रायः महत्त्वहीन एवं सामान्य पाठ को छोड दिया जाता है। इनमें विशेष रूप से ऐसे पाठ जिनमें अर्थ परिवर्तन की सम्भावना होती उन्हें छोड दिया जाता है। पाण्डुलिपि के संकलन में प्राप्त सामग्री में नवीन हस्तलेखों की अपेक्षा प्राचीन हस्तलेखों को अधिक महत्त्व दिया जाता है तथा सामान्य पाठों की अपेक्षा विज्ञपाठों को महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।
v हस्तलेखों का वर्गीकरण- प्राप्त हस्तलेखों के परीक्षण तथा संचयन करने के पश्चात् उनके वर्गीकरण का कार्य किया जाता है। हस्तलेखों की प्रतियों के चयन कर लेने के बाद उनको विभिन्न विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। यह वर्गीकरण प्राप्तलिपि, व्याख्याकार, विषयवस्तु आदि के आधार पर किया जाता है। इन हस्तलेखों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जाता है-
क. भौगोलिक आधार पर- भारत देश एक विस्तृत भू-भाग में व्याप्त है। अतः इसकी ज्ञान परम्परा की व्यापकता भी संभाव्य है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में हस्तलेखों के आवागमन से इनमें क्षेत्रिय आधार पर भेद प्राप्त होते हैं, अतः जब हस्तलेखों का संचयन हो जाता है तब उन्हें भौगोलिक आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे पूर्व में कश्मीर आदि क्षेत्र एवं दक्षिण में केरल, तमिलनाडु आदि के हस्तलेख।
ख. लिपि के आधार पर- भारत में अनेक लिपियों का जन्म हुआ जो अपनी विशेषतों के लिये पहचानी जाती रही है। कालान्तर में होने वाली लिपि अपने पूर्वज से सरल मानी जाती रही है अतः समय-समय पर नवीन लिपियों के अविष्कार से हस्तलेखों में भी भिन्नता आने लगी। इसके परिणामस्वरूप आज हमें ग्रन्थ कई लिपियों में प्राप्त हो रहे हैं। जैसे ग्रन्थ, शारदा, देवनागरी लिपि में पाये गये हस्तलेख।
ग. व्याख्याकार के आधार पर- रामायण महाभारत जैसे अनेक ग्रन्थ है जिनके हस्तलेखों का वर्गीकरण उनके टीकाकरों के आधार पर भी किया जा सकता है। भारतीय परम्परा में टीका, भाष्य आदि ऐसी परम्परा थी जिसने मूल पाठ की रक्षा करने का कार्य किया।
vवंशवृक्ष का निर्माण- सम्पादन में वंशवृक्ष मुख्य भूमिका निभाता है। प्रतियों का परस्पर संबन्ध निर्धारण या वंशवृक्ष निर्माण ही सम्पादन का प्रथम वैज्ञानिक घटक है। प्रतियों का वंशवृक्ष उनकी विकास यात्रा को अभिव्यक्त करता है। सही रूप में वंशवृक्ष का निर्माण कर लेना सम्पादन की आधी यात्रा को पार कर लेना होता है। वंशवृक्ष निर्माण का परम लक्ष्य होता है कि उस मूल मातृका तक पहुँचा जाये जो लेखक या लिपिकार के द्वारा मूलरूप में लिखी गई थी। क्योंकि मूल पाठ इतने वर्षों तक सुरक्षित नहीं रह सकता है उसमें कालक्रम के परिवर्तनों के साथ भेद संभाव्य है। वर्षों से परम्परा का निर्वाह करने वाले आचार्यों ने जिन प्रतिलिपियों का संरक्षण किया उनमें पाठभेद है अतः वंशवृक्ष के द्वारा उन साम्य-वैषम्य, प्राचीन-पाठ आदि के आधार पर मूल पाठ तक पहुँचा जा सकें यही संपादक का लक्ष्य है। प्रो. वसन्त कुमार भट्ट ने वंशवृक्ष की दो प्रकार से कल्पना की है-
मातृकाओं का वंशवृक्ष एवं वाचनाओं का वंशवृक्ष * Ignca lacture |
· जब कभी अल्प संख्यक पाण्डुलिपियाँ होती है, तब उनके परस्पर के साम्य एवं वैषम्य के आधार पर सबसे पहले तो उनका समानवंशजत्व सिद्ध किया जाता है। ततः (कालग्रस्त) पूर्वज प्रति (उपमूलादर्श प्रतियों) के पाठ का अनुमान हो सकता है। · यहाँ प्राचीन से प्राचीनतर का अनुमान होगा · यहाँ अतीत में जाने की प्रक्रिया है। · (यहाँ नीचे से उपर जाना है ) अन्ततो गत्वा, मूलादर्श-प्रति का पाठ ढूँढा जा सकेगा। |
· वाचनाओं का वंशवृक्ष बनाने से मूल कृति की पाठयात्रा निश्चित हो सकती है। · यानि विविध वाचनाओं की आनुक्रमिक विकास-यात्रा निर्धारित की जा सकती है। · केवल यहाँ ऊर्ध्वमूलमधःशाखम् का चित्र स्पष्ट होता है। (ऊपर से नीचे की यात्रा) · सुदूर अतीत में लिखे गये मूलपाठ से शुरु हुई परम्परा का क्रमिक परिवर्तनादि होते हुए, वर्तमान में कितने वैविध्ययुक्त पाठों में फैलाव हुआ है? उसका अनुसन्धान करना |
प्रो. वसन्त भट्ट ने समीक्षित पाठ सम्पादन के दो रूप बताये हैं- निम्नतर समीक्षित पाठ-सम्पादन(Lower criticism) तथा उच्चतर समीक्षित पाठ-सम्पादन (Higher Criticism)।
पुनः Lower Criticism के भी तीन सोपान बताये हैं- 1. अनुसन्धान, 2. संचरित पाठ-परम्पराओं में से वाचना निर्धारण करना तथा मूलादर्शप्रति का पाठ ढूंढना ३.पाठ-सुधारणा तथा संस्करण। Lower Criticism में पाण्डुलिपियों की प्राधान्यता रहती है। जैसा पाठ उपलब्ध है उसी आधार पर तुलना करके पाठ का निर्धारण किया जाता है। Higher Criticism में इतिहास, प्रसंग, भाषा आदि बिन्दुओं को आधार बनाकर पाठ निर्धारण किया जाता है
पाठ सम्पादन के लिए अनिवार्य गुण-
पाठ-सम्पादन एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें समय पर कोई पाबन्द नहीं है। एक अच्छे समीक्षित पाठ सम्पादन में किसी व्यक्ति का जीवन भी कम पड सकता है। पाठ सम्पादन कार्य यदि सही दिशा में होता है तो लेखक के मूलपाठ तक पहुँचा जा सकता है। लेखक ने किस उद्देश्य से रचना की तथा किन भावों को अपने ग्रन्थ में संजोया है यह जानना नितान्त आवश्यक है। आज के समय में पाठ सम्पादन का कार्य प्रारम्भिक अवस्था में है, जिसके अन्तर्गत कुछ वर्षों में रामायण, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों का समीक्षित पाठ सम्पादन देखा गया है। समीक्षित पाठ सम्पादन कार्य करने वाले विद्वानों में कुछ गुणों की प्रायः अपेक्षा की जाती है जो इस प्रकार है-
1. अभिरुचि- अभिरुचि केवल समीक्षित पाठ सम्पादन का ही गुण नहीं परन्तु यह प्रत्येक उस कार्य के लिए जरुरी है जिसके सार्थक होने की संभावना की जाती है। यदि समीक्षित पाठ सम्पादन में अभिरुचि नहीं है तो वह कार्य निरर्थक है। आज यह परिस्थिति विश्वविद्यालय में देखने को मिलती है जिसमें उन्हें एक ऐसे कार्य को दिया जाता है जिसमें उनकी कोई अभिरुचि ही नहीं । कुछ लोग समीक्षित सम्पादन का कार्य अपने ए. पी. आई. स्कोर की वृद्धि के लिये करते है परन्तु यह केवल पैसे और समय का व्यय है। समीक्षित पाठ-सम्पादन का जो उद्देश्य है वह ऐसे कार्य से कभी संभव नहीं हो सकता ।
2. विभिन्न भाषाओं का ज्ञान- जब हमने अभिरुचि के अनुसार किसी हस्तलेख का चयन कर लिया तब उसमें अनेक प्राप्त हस्तलेखों का स्वरूप अनेक भाषाओं में संभाव्य है। अतः जो समीक्षित पाठ सम्पादक है उसे उन सभी भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है जो प्राप्त हस्तलेखों में उपस्थित है। भारतवर्ष को भाषाओं का समुद्र कहा जा सकता है यहाँ भौगिलिक परिवेश के आधार पर अनेक भाषओं का प्रचलन रहा है। प्राचीन काल में जब कोई लेखक किसी कृति की रचना करता तो उसका अनुवाद अन्य भाषाओं में अत्यन्त शीघ्र हो जाता रहा है। समीक्षित पाठ-सम्पादन के संकलन में अवान्तर साक्ष्यों का बहुत ही महत्त्व रहता है। इसी में अनुवाद ग्रन्थों की गणना की जाती है। रामायण के समीक्षित पाठ- सम्पादन में अनेक भाषाओं के ग्रन्थों का अध्ययन किया गया है। यहाँ तक की भारत से इतर अन्य राष्ट्रों में जाने वाले ग्रन्थों का अध्ययन भी अनिवार्य माना जाता है। हमारे सामने ऐसे कई उदाहरण प्राप्त हैं जिनसे ज्ञात होता है कि ऐसे अनेक ग्रन्थ है जिनका पाठ केवल विदेशी भाषाओं में ही प्राप्त था। वहीं से इन पाठों का अनुवाद करके पुनः भारतीय भाषाओं में स्थापित किया गया है।
3. विभिन्न लिपियों का ज्ञान- समीक्षित पाठ-सम्पादन में तीसरा विशेष गुण होता है लिपि। लिपियों का ज्ञान अनिवार्य है। भारत में प्राप्त हस्तलेखों में शारदा, ग्रन्थ, नेवारी, नन्दीनागरी, टाकरी, तिगलारी, मैथिली आदि लिपियाँ है। इन सभी लिपियों का ज्ञान तो अनिवार्य है साथ ही ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला भी आना अवश्यक है। भाषाओं की भिन्नता के साथ ही लिपियों की भिन्नता भी चली आ रही है। यहाँ यह भी संभव है कि कुछ भाषाओं के लिए स्वतन्त्र लिपियों का अविष्कार किया गया। जैसे दक्षिण प्रान्त में संस्कृत के लिए “ग्रन्थ” लिपि का अविष्कार किया गया था तथा महाराष्ट्र में मराठी के लिए “मोडी” लिपि का चलन प्रारम्भ हुआ। अतः ऐसे में लिपियों का ज्ञान अनिवार्य हो जाता है। अभिनवगुप्त का उदाहरण देखें तो उनकी रचना अभिनवभारती का प्रणयन काश्मीर प्रदेश में हुआ परन्तु उसकी एक भी प्रति काश्मीर क्षेत्र से प्राप्त नहीं हुई। अभिनवभारती की प्रति लिपियों के माध्यम से दक्षिण तक पहुँची तथा वहाँ उसका सुरक्षित पाठ प्राप्त हुआ।
4. अक्षर संख्या का ज्ञान- समीक्षित पाठ-सम्पादन में संख्याशास्त्र का ज्ञान भी एक अपेक्षित गुण है। पुरातन परम्परा में संख्या के लिए अंको के स्थान पर अक्षरों का प्रयोग करते हैं। ये प्रयोग ज्योतिष शास्त्रों में आज भी देखने को मिलते हैं। अतः यदि इन अक्षर संख्या का ज्ञान नहीं है तो लेखक के अभिप्राय को समझना अत्यन्त असंभव है। साहित्यदर्पण में ध्वनिभेद की गणना करते हुये लिखा है- इषुबाणाग्निसायकाः अर्थात् ध्वनि के 5355 भेद हैं। यहाँ शब्दों के माध्यम से गणना की गई है। शब्दों से जब अंको में संख्या का परिवर्तन होता है तो “अङ्कानां वामतो गतिः” के सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है अर्थात् जब जो अक्षर जिस संख्या के लिए प्रथम स्थान पर आया है वह वास्तविक रूप से अन्तिम अक्षर है। उदाहरण के लिये किसी स्थान पर ’नेत्रवेदवसुब्रह्म’ आया। यदि इनको अङ्को में लिखना है तो पहले ब्रह्म जिसकी संख्या 1 है, द्वितीय वसु जो संख्या में 8 है, तृतीय वेद, जो 4 प्रसिद्ध है तथा अन्त में नेत्र, जिनके संख्या 2 है। अर्थात् प्राप्त संख्या का स्वरूप 1842 होगा। अतः इस प्रकार समीक्षित पाठ –सम्पादन का अक्षर संख्या गणना एक अनिवार्य गुण माना जाता है।
5. इतिहास ज्ञान- समीक्षित पाठ-सम्पादन का पाचवाँ अनिवार्य गुण इतिहास का ज्ञान है। इतिहास का स्वरूप हमें अधिकांश श्रुत परम्परा से ही प्राप्त होता है। यदि अशोक के इतिहास का कुछ भी ज्ञान नहीं होता तो उसके स्तम्भ लेखों को पढना असंभव था। जब किसी पाण्डुलिपि का अध्ययन किया जाता है तब उसके अन्तर्गत ऐसे अनेक आख्यान सम्भव है, जो आपको इतिहास के माध्यम से भी ज्ञात हो सकते है । इस प्रकार के प्रकरण पाठ को सुनिश्चित करने में सहायक होते हैं। अतः पाठ सम्पादक को इतिहास का ज्ञान होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है।
6. व्याकरण का ज्ञान- समीक्षित पाठ के लिए व्याकरण का ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि यदि व्याकरण का ज्ञान नहीं है तो पाठ की समीक्षा करना निरर्थक है। व्याकरण के माध्यम से आप शब्दों की सन्धियाँ, समास तथा उनके स्वरूप को आसानी से समझ सकते हैं। पाठ समीक्षा में केवल भाषा का ज्ञान पर्याप्त नहीं होता है उसके व्याकरण की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है ।व्याकरण के साथ भाषा-विज्ञान विषय को जानना आवश्यक है क्योंकि भाषा परिवर्तनशील है अतः उनके ज्ञान के बिना हम लेखक के मूल आशय तक नहीं पहुँच सकते है। व्याकरण की उपयोगिता को एक प्रसंग में इस प्रकार बताया है-
यद्यपि बहुनाधीषे पठ पुत्र तथापि व्याकरणम्।
स्वजनः श्वजनो माभूत्सकलः शकलः सकृच्छकृत्॥
यहाँ एक पिता अपने पुत्र को समझाते हुए कह रहा है पुत्र! यदि तुम बहुत अधिक नहीं पढ सकते हो तो कम से कम व्याकरण का अध्ययन तो अवश्य कर लो। क्योंकि यदि व्याकरण का ज्ञान नहीं लिया तो शब्दों में भेद नहीं कर सकते। अतः इस प्रकार वाक् परम्परा में व्याकरण का विशेष महत्व है।
7. सन् - संवत् का ज्ञान- समीक्षित पाठ सम्पादन में संवत् का ज्ञान होना आवश्यक है। प्राचीन काल में पाण्डुलिपि की पुष्पिका में लेखनकाल दिया जाता रहा है। परन्तु कालक्रम के चक्र में संवत् की परम्परा में परिवर्तन हुए तथा विभिन्न काल में सभी प्रदेशों में अलग-अलग संवत् का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। काल की गणना आवश्यक है क्योंकि जब पाठ के प्राचीन स्वरूप की चर्चा करेंगे तो काल गणना सहायक सिद्ध होगी। अतः समीक्षित पाठ सम्पादन के लिये संवत् गणना का ज्ञान होना अनिवार्य है। पं. गौरीशंकर ओझा ने अनेक संवतों का परिचय दिया है जिनको इस प्रकार देखा जा सकता है।
क्र. |
संवत्सर का नाम |
वर्षों में अन्तर |
ईसा वर्ष की प्राप्ति |
1 |
कलि संवत्सर |
-3101 |
? |
2 |
कलि काल |
-3101 |
? |
3 |
कलचुरि संवत् |
+248 |
? |
4 |
कोलम्ब वर्ष |
+824 |
? |
5 |
कोल्लम् अण्डु |
+824 |
? |
6 |
कच्चा संवत्सर |
+24 |
? |
7 |
गांगेय संवत् |
-570 |
? |
8 |
गुप्त संवत् |
+319 |
? |
9 |
चेदि संवत् |
+248 |
? |
10 |
चालुक्य विक्रम संवत् |
+1075 |
? |
11 |
त्रैकुटक संवत्सर |
+248 |
? |
12 |
नेपाली संवत् |
+878 |
? |
13 |
नेवारी संवत् |
+878 |
? |
14 |
परशुराम संवत् |
+824 |
? |
15 |
पहाडी संवत् |
+24 |
? |
16 |
बंगाब्द संवत् |
+593 |
? |
17 |
बंगाली संवत् |
+593 |
? |
18 |
बुद्ध परिनिर्वाण संवत् |
-487 |
? |
19 |
भट्टिक संवत् |
+623 |
? |
20 |
भाटिक संवत् |
+623 |
? |
21 |
मालव संवत् |
-56 |
? |
22 |
मौर्य संवत् |
-321 |
? |
23 |
राज शक |
+1674 |
? |
24 |
राज्याभिषेक शक |
+1674 |
? |
25 |
लक्ष्मणसेन सवंत् |
-1118 |
? |
26 |
लौकिक काल |
+24 |
? |
27 |
विक्रम संवत् |
-57 |
? |
28 |
महावीर निर्वाण संवत् |
-527 |
? |
29 |
वलभी संवत् |
+320 |
? |
30 |
शक् संवत् |
+78 |
? |
31 |
शालिवाहन शक संवत् |
+78 |
? |
32 |
शास्त्र संवत् |
+24 |
? |
33 |
सप्तर्षि संवत् |
+24 |
? |
34 |
सिंह संवत् |
+1113 |
? |
35 |
इलाही संवत् |
+1555 |
? |
36 |
हिजरी संवत् |
+609 |
? |
8. चित्रकला का ज्ञान- अनेक पाण्डुलिपियों में चित्र भी प्राप्त हैं। इन चित्रों में लेखक ने अपने आशय को पिरोया है यदि चित्रकला का ज्ञान नहीं है तो उनके आशय को समझना कठिन कार्य है। चित्र एक ऐसी कला है जिसके माध्यम से किसी वस्तु को आसानी से समझ सकते हैं। प्राचीनकाल में लेखकों ने भी चित्रों का प्रयोग किया था। समीक्षित पाठ संपादक को चित्रकला का ज्ञान होने से वह सही प्रकार से पाठ निर्माण कर सकता है।
9. शारीरिक क्षमता- अच्छे समीक्षित पाठ-सम्पादन के लिए निरोग होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि हस्तलेख अतिप्राचीन होने के कारण स्पष्ट नहीं होते। अतः उनके लिए आँखो का ठीक होना आवश्यक है। इसी प्रकार सम्पूर्ण शारीरिक क्षमतावान व्यक्ति ही यदि समीक्षित पाठ-सम्पादन करें तो वही सही रूप में सफल कार्य होगा।
पाठ भेद के कारण
लेखक ने किस पाठ को रचा था यह बताना आज बहुत कठिन है। क्योंकि कालान्तर में वह कृति कई आचार्यों के पास गई जिसके कारण उसके मूल पाठ में किसी विशेष प्रयोजन या प्रयोजन के बिना परिवर्तन हुआ। ऐसे अनेक कारण है जिनके कारण एक ही कृति के अनेक पाठ उपलब्ध होने लगे। अब समस्या यह है कि उनमें से किस पाठ को सही माना जाये । अतः इसी प्रश्न के उत्तर में समीक्षित पाठ-सम्पादन जैसी प्रक्रिया का प्रारम्भ हुआ। पाठ भेद के अनेक कारण हो सकते है जिनको इस प्रकार देख सकते है-
1. रचनाकार का उचारण दोष- यह संभव है कि पाठ भेद का एक कारण रचनाकार का उच्चारण दोष है। प्राचीन काल में कृति की रचना करने वाला भिन्न होता था तथा उसका लेखन कार्य करने वाला भिन्न होता था। ग्रन्थकर्त्ता के द्वारा पाठ का उच्चारण किया जाता था तथा लेखनकर्त्ता उसको लिखित रूप देता था। जैसे कि महाभारत की रचना का प्रसंग भी कुछ इस प्रकार है कि महाभारत की रचना वेदव्यास जी ने की है परन्तु उसके लेखन का कार्य गणेश जी करते है। अतः इस प्रकार ग्रन्थ रचना की परम्परा रही है। यहीं से यह कल्पना की जा सकती है कि जिसने मूलकृति की रचना की, यदि उसके उच्चारण में दोष होगा तो पाठ में दोष हो सकता है। जिसको परवर्ती आचार्य अपने-अपने अनुसार सही करने का प्रयास करते है। अतः इस प्रकार यहाँ कृति में अनेक पाठभेद हो जाते हैं।
2. लिपिकार का श्रवणदोष- जिस प्रकार रचनाकार का उच्चारण दोष मूलपाठ में क्षति उत्पन्न करता है उसी प्रकार लिपिकार के दोषों से भी पाठ का स्वरूप भिन्न हो जाता है। यदि लिपिकार में श्रवण दोष है तो वह अपनी समझ के अनुसार पाठ स्थापित कर देता है। प्राचीन काल में लेखनकार्य एक व्यवसाय था। ये लोग पण्डितों, महन्तों के यहाँ जाकर लेखन कार्य किया करते थे तथा साथ ही प्रतिलिपियाँ बनाकर मेलों या मन्दिरों में बेचा करते थे। जब लेखन एक व्यवसाय हो गया तो प्रतिलिपि की आवश्यकता अत्यधिक होने लगी जिसके परिणाम स्वरूप एक साथ अनेक प्रतिलिपियों का निर्माण होने लगा। यहाँ पर प्रधान मूलप्रतिलिपि से वाचन करता था तथा उनके शिष्य उनकी प्रतिलिपि तैयार करते थे। अतः इस प्रकार श्रवण दोष, अयोग्यता, पाण्डित्य आदि कारणों से एक पाठ के अनेक पाठ होना संभव हो जाता है। अतः यह भी एक कारण है पाठभेद का।
3. लिपि- यदि प्रतिलिपिकार को प्राप्त हस्तलेख की लिपि का सम्यक् ज्ञान नहीं तो वह अपने अनुसार पाठ को निर्धारित कर देता है जिसके कारण मूल पाठ से नवीन पाठ भिन्न हो जाता है। अतः लिपि का ज्ञान भी पाठ भेद का एक कारण हो सकता है। साथ ही यदि प्राचीन प्रतिलिपि में लेख साफ नहीं है तब भी पाठ में दोष उत्पन्न हो सकता है। लिपि के सही रूप में लेखन के विषय में प्राचीन ग्रन्थों में कहा है-
समशीर्षाण्यक्षराणि वर्तुलानि घनानि च।
परस्परमलग्नानि यो लिखेत्स हि लेखकः॥
समानि समशीर्षाणि वर्तुलानि घनानि च।
मात्रासु प्रतिबद्धानि यो जानाति स लेखकः॥
शीर्षोपेतान् सुसम्पूर्णान् शुभश्रेणिगतान् शुभान्।
अक्षरान् वै लिखेद्यस्तु लेखकस्स वरः स्मृतः॥
अर्थात् लेख के अक्षर समशीर्ष, वर्तुल तथा सघन परन्तु परस्पर अलग होने चाहिए (अर्थात् एक-दूसरे को आसानी से पहचाना जा सकें)। यथोचित मात्राओं से उन्हें युक्त होना चाहिए। अक्षर सीधी रेखा में लिखे हुए, परिपूर्ण तथा शीर्ष से युक्त होने चाहिए। ऐसा लेख लिखने वाला लिपिकार ही श्रेष्ठ माना जाता है।
गरुडपुराण में भी लिपिकार के विषय में कहा है-
मेधावी वाक्पटु प्राज्ञः सत्यवादी जितेन्द्रीयः।
सर्वशास्त्रसमालोकी ह्येष साधुस्स लेखकः।
अर्थात् एक अच्छे लिपिकार के कुछ गुण अनिवार्य होते है जैसे वह मेधावी हो, उसमें वाक्पटुता हो, विद्वान् हो, सत्य का पालन करने वाला हो, उसकी सभी इन्द्रियाँ काम कर रही हो, सर्वशास्त्र का ज्ञाता हो। अतः इस प्रकार के गुणों से युक्त कोई लिपिकार होगा तो निश्चय ही प्रतिलिपि में दोष की संभावना कम होगी।
4. क्षेत्रिय प्रभाव – प्रतिलिपियों में पाठभेद होने का एक कारण क्षेत्रिय प्रभाव भी हो सकता है। भारत एक विस्तृत भू-भाग में फैला है जिसमें अनेक संस्कृतियाँ एक साथ निर्वाह करती है। लेखक जब किसी ग्रन्थ की रचना करता है तो वह अपने क्षेत्रिय प्रभाव से ग्रसित होने से उसमें अपने क्षेत्र के कुछ अंश मिला देता है जिसे अन्य क्षेत्र के लोग उतनी आत्मीयता से समझने में सक्षम नहीं होते है। ऐसा ही प्रतिलिपि करते समय भी संभव है कोई व्यक्ति जब प्रतिलिपि करता है तो वहाँ अपने क्षेत्र की परम्परा को प्रमाणिक मानकर प्राप्त पाठ में भेद कर देता है जैसा कि प्रो. वसन्त भट्ट के अनुसार अभिज्ञानशाकुन्तल का मिथिला पाठ कुछ भिन्न है इसमें मिथिला की परम्परा के कुछ अंश दिखाई देते हैं। अतः क्षेत्र भी पाठ भेद का एक मुख्य कारण हो सकता है।
अतः इस प्रकार हम पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया को समझ सकते है। पाठ-सम्पादन की प्रक्रिया शोध के लिए अनिवार्य है।
धन्यवाद!
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1 comments:
Click here for commentsबहुत अच्छा विश्लेषण 👍🏼👍🏼👍🏼
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