अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं। अभिलेखों में उन लोगो की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं। इनमें राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्योरा होता है। यानि अभिलेख एक प्रकार से स्थायी प्रमाण होते हैं। कई अभिलेखों में इनके निर्माण की तिथि भी खुदी होती है जिन पर तिथि नहीं मिलती है, उनका कालनिर्धारण आमतौर पर पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर किया जा सकता है। प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत भाषाओं में लिखे जाते थे। प्राकृत उन भाषाओं को कहा जाता था जो जन सामान्य की भाषाएँ होती थीं। यदि अत्यंत प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के अभिलेखों का वर्गीकरण किया जाए तो उनके प्रकार इस भाँति पाए जाते हैं:- व्यापारिक अभिलेख, व्यावहारिक अभिलेख, आभिचारिक अभिलेख, धार्मिक और कर्मकांडीय अभिलेख, उपदेशात्मक अथवा नैतिक अभिलेख, समर्पण तथा चढ़ावा संबंधी अभिलेख, दान संबंधी अभिलेख, प्रशासकीय अभिलेख, प्रशस्तिपरक अभिलेख, स्मारक तथा साहित्यिक अभिलेख ।
1. ब्राह्मी लिपि परिचय-
भारतीय विद्वान् जहाँ ब्राह्मी का सम्बन्ध सीधे ब्रह्मा की लिपि या ब्रह्मा द्वारा निर्मित लिपि से मानते है वही पाश्चात्य विद्वानों का इस लिपि के उद्भव एवं विकास में दूसरा पक्ष है। ब्राह्मी एशिया कि वह लिपि है जिसका स्थान प्रथम है साथ ही यही लिपि अन्य एशियाई लिपियों के विकास का कारण रही है। भारत में लेखन कला की बात करें तो सर्वप्रथम ब्राह्मी के लेख ही प्राप्त होते है। हालांकि यह विवाद का विषय बना हुआ है कि भारत में ब्राह्मी से पहले कोई सुव्यवस्थित लिपि थी या ब्राह्मी ही उनकी सर्वप्रथम लिपि है। भारतीय शास्त्रों तथा विद्वानों के कथन से स्पष्ट होता है भारत में सर्वप्रथम साहित्य सृजन हुआ है अतः यह भी निश्चित है कि भारत में लेखन का व्यवहार रहा है। पुनरपि लेखन की कला का कहाँ सर्वप्रथम विकास हुआ इस विषय पर अनेक विद्वानों के मतों को इस प्रकार देख सकते है-
Ø लेखन की कला का सम्बन्ध सीधा दैविक शक्ति से माना जाता है यह परम्परा भारत ही नहीं अपितु अन्य सभ्यताओं में भी दिखाई देती है।
Ø बादामी से ई. ५८० ई में प्रस्तर खण्ड प्राप्त हुआ उसमें ब्रह्मा का चित्र बना है। उस चित्र में ब्रह्मा के हाथ में ताडपत्रों का एक समूह है।
Ø अल्बेरुनी का मत था कि भारतीय दुर्भाग्य से पराशर से पहले लेखन कला को भूल चुके थे किन्तु कलियुग के आरम्भ में दैवयोग से पराशर पुत्र वेदव्यास ने पुनः इस लेखन कला को जिवित किया तथा वेद, पुराण का संकलन एव लेखन कार्य प्रारम्भ किया है।
Ø ब्यूलर, डेविड आदि ने ६०० ई. पू. से पहले भारत में लेखनकला को नहीं स्वीकार किया क्योंकि पाणिनि ने अपने ग्रन्थ में किसी लिपि का उल्लेख नहीं किया।
Ø डेबिड डिरिंजर ने ब्राह्मी लिपि का काल ५०० ई.पू. माना तथा साथ ही इसे भारत की आदिलिपि भी कहा।
Ø बर्नेल महोदय के अनुसार ब्राह्मी लिपि का अविष्कार फिनिशियन नामक लिपि से हुआ है।
Ø बूलर सेमेटिक लिपि से भारतीय लिपि का अविष्कार मानता है।
Ø अशोक से पूर्व केवल दो शिलालेख प्राप्त है एक अजमेर जिले का बाडली गांव में तथा दूसरा नेपाल की तराई के पिप्रावा नामक स्थान पर।
Ø चीनी विश्वकोश फा-वान-शू-लिन में लिखा है कि भारत में ब्रह्मा ने एक ऐसी लिपि का अविष्कार किया था जो बायें से दायें लिखी जाती थी।
Ø ललितविस्तर में भी ६४ लिपियों का उल्लेख किया गया है जिसमें आदि लिपि बम्पी अर्थात् ब्राह्मी को ही स्वीकार किया गया।
Ø प्राचीन मिश्रवासियों ने लेखन का जन्मदाता या तो थौथ को माना है जिसने प्रायः सभी सांस्कृतिक तत्त्वों का अविष्कार किया था या यह श्रेय आइसिस को दिया है।
Ø बेबीलोनवासी माईक पुत्र नेवो नामक् देवता को लेखन का अविष्कारक मानते है।
Ø एक पाचीन यहूदी परम्परा में मूसा को लिपि का निर्माता माना गया है।
Ø यूनानी पुराणगाथा में हर्मीज नामक देवता को लेखन के देवता का श्रेय दिया।
Ø प्राचीन, भारतीय आदि जातियों ने लेखन का मूल दैवी को ही स्वीकार किया है।
ब्राह्मी लिपि बाई तरफ से दाहिने तरफ लिखने वाली सार्वदैशिक लिपि है। इसमें सभी वर्णों के नाम, क्रम, उच्चारण आदि समान है। सभी वर्ण ध्वन्यात्मक है जो वर्गों में विभाजित है। ब्राह्मी के अक्षर उच्चारण के आधार पर लिखे जाते है। यह एक स्वतन्त्र लिपि है। इसके ६४ चिह्न है। इसमें दीर्घ तथा ह्रस्व मात्राओं का प्रयोग मिलता है। इसमें अनुस्वार, अनुनासिक तथा विसर्ग का प्रयोग है। अक्षरों का विभाजन उच्चारण के आधार पर है।
चिह्नों के द्वारा स्वरों का सम्बन्ध व्यञ्जन से किया गया है। ब्राह्मी लिपि में वर्ण के साथ मात्रा का प्रयोग होता है तथा साथ ही इसमें संयुक्ताक्षरों का स्थान भी है। भारत के अन्य लिपियों के विकास में नि़श्चित इसी लिपि का अधिक योगदान है क्योंकि इन सभी लिपियों में ब्राह्मी की विशेषताओं की झलक प्रतीयमान होती है
2. ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति में विभिन्न मत
भारतीय परम्परा के अनुसार ब्रह्मा ने इस सृष्टि का सृजन किया है तथा उसी ब्रह्मा के द्वारा बनाई होने के कारण इस लिपि को ब्राह्मी कहा जाता है। परन्तु पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार ब्राह्मी की उत्पत्ति में विदेशी लिपियों का योगदान है तथा उन्होंने इसकी सीमा भी चौथी शताब्दी ई. पू. तक निर्धारित की है। ब्राह्मी की उत्पत्ति के विषय में दोनों मतों को इस प्रकार देख सकते है-
१. भारत में उत्पत्ति- भारतीय आचार्यों के अनुसार ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति ब्रह्मा के द्वारा के गई है अतः इसका उत्पत्ति स्थान भारत ही रहा है। नारद स्मृति में भी “नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम्। तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यद् शुभांगतिः” यह कहा गया है जिसमें स्पष्ट है ब्राह्मी लिपि का उत्पत्ति ब्रह्मा के द्वारा की गई है। जैन ग्रन्थ पन्नंवणासूत्र और समवायांगसूत्र में १८ लिपियों के नाम मिलते है जिनमें सबसे पहले बंभी का नाम है तथा भगवतीसूत्र में बंभी लिपि को नमस्कार किया गया है- ”नमो बंभिए लिखिए”। बौद्धग्रन्थ ललितविस्तर में ६४ लिपियों के नाम गिनाये गये है जिनमें सबसे पहले ब्राह्मी का नाम है। जैन ग्रन्थों में ऋषभदेव ने अपनी पुत्री को लिपि पढाने के लिए ब्राह्मी नामक लिपि का अविष्कार किया था। ह्वेनसाँग जो भारत में धार्मिक यात्रा के लिये आया था उसका भी कथन है कि लेखन कला का उद्भव सर्वप्रथम भारत वर्ष में ही हुआ। चिनी विश्वकोश फा-वान्-शू-लिन में ब्राह्मी को भारत की प्रथम लिपि कहा है। कर्टियसन के अनुसार भारतवासी बहुत प्राचीन लिपि जानकार थे और वे भोज पत्रों पर लेखन कार्य करते थे। मेगस्थनिज के ग्रन्थों से ज्ञात होता है भारत में १०-१० स्टेडिया दूरी पर ठहरने का पता लिखा रहता था। लैसेन तथा थामस आदि विद्वानों ब्राह्मी को द्रविडो़ की लिपि माना है। इनके अनुसार आर्यों के भारत आगमन से पहले द्रविडो़ भारत के मूल निवासी थे उन्हीं ने यहाँ ब्राह्मी लिपि का अविष्कार किया था। कालान्तर में द्रविडो़ को अपना क्षेत्र छोडकर जाना पडा तथा इसी कारण उन्हें ब्राह्मी छोडकर उससे निर्मित तमिल लिपि का सहारा लेना पडा। इसके विपरित कनिंघम तथा डॉयसन आदि ने ब्राह्मी को आर्यो की लिपि माना है। अतः इन सभी उदाहरणों के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मी का जन्म स्थान भारत ही रहा है।
२. विदेशी लिपि से उत्पत्ति- ब्राह्मी की उत्पत्ति के विषय में अधिकतर पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसकी उत्पत्ति विदेशी लिपियों के कारण हुई है। इनका मानना है कि भारत में जिन सभ्यताओं ने व्यापार तथा राज्य-सम्पत्ति हेतु बाहर से प्रवेश किया था उनके संसर्ग में आने के कारण ब्राह्मी लिपि का अविष्कार हुआ था क्योंकि यूनान अदि देशों में पूर्व से ही लिपि का व्यवहार विद्यमान है। ब्राह्मी की उत्पत्ति किस लिपि से हुई इस पर विचार इस प्रकार है- प्रथम पक्ष के अनुसार ब्राह्मी का उद्भव फाइनीशियनों द्वारा हुआ। भारत में यह लिपि व्यापार के माध्यम से आई। भारत में इसका समय ५०० ई.पू के आसपास रहा है क्योंकि ब्यूलर ने फाईनीशियन का उद्भव ९ वी सदी ई पू का माना है। दूसरे पक्ष में ब्राह्मी का उद्भव यूनानी लिपि से मानते है। विलियम जोन्स ब्राह्मी लिपि का उद्भव सेमेटिक लिपि से मानते है जिसक समय ५०० ई.पू के आसपास मानते है।
3. ब्राह्मी अभिलेख- भारतीय सभ्यता में अशोक से पूर्व भी लेखन के अवशेष अवश्य मिले है परन्तु उन लेखों का अध्ययन करने में हम आधुनिक पर्यन्त असफल है। ब्राह्मी के अभिलेख ऐसे सर्वप्राचीन अभिलेख है जिन्हें सफलता पूर्वक पढा़ गया है। अशोक कालिन अभिलेखों के पश्चात् ब्राह्मी में अनेक अभिलेखों का समय-समय पर निर्माण किया गया। ब्राह्मी के इन अभिलेखों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते है। प्रथम अशोक तथा अशोक से पूर्व के ब्राह्मी अभिलेख, द्वितीय अशोकोत्तर कालिन ब्राह्मी अभिलेख तथा तृतीय गुप्त एवं गुप्तोत्तरकालिन अभिलेख। प्रथम भाग में मुख्यतः अशोक के ही अभिलेख की गणना की जाती है हालांकि अशोक के पूर्व के कुछ अभिलेखों का अध्ययन अवश्य हुआ है जिसमें पिपरहवा बौद्ध अस्थिकलश अभिलेख, सोहगौरा ताम्र-पत्र अभिलेख तथा महास्थान खंडित प्रस्तर पट्टिका अभिलेख। इन लेखों की लिपि अवश्य ब्राह्मी है परन्तु लेखकों ने इसे केवल ब्राह्मी न कहकर आदिब्राह्मी के नाम से प्रयोग किया। अतः मुख्य ब्राह्मी में अशोक के चौदह अभिलेख, स्तम्भलेख तथा शिलालेख आते है। अशोक ने प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि के माध्यम से अपने अभिलेखों का निर्माण करवाया था। अशोक के अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इन अभिलेखों का मुख्य ध्येय संदेश पहुँचाना रहा होगा। द्वितीय अशोकोत्तर कालिन ब्राह्मी अभिलेखों के अन्तर्गत शुंग चेदि अभिलेख, खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी शातकर्णी के नासिक गुहा अभिलेख, नहपानकालीन नासिक गुहालेख, रुद्रदामन का जूनागढ अभिलेख, कनिष्क का सारनाथ बौद्ध प्रतिमा अभिलेख तथा कुषाण के अभिलेख आदि मुख्य अभिलेख है। तृतीय गुप्त एवं गुप्तोत्तरकालिन अभिलेखों में समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, प्रभावती, कुमार गुप्त, स्कन्दगुप्त आदि के अभिलेख प्रसिद्ध थे।
4. ब्राह्मी अभिलेखों का अध्ययन- ब्राह्मी लिपि का विकास किस काल में हुआ है यह ज्ञात न होने के बाद भी यह स्पष्ट है कि चौथी शताब्दी ई.पू से तीसरी शताब्दी ई. तक ब्राह्मी का व्यवहार निरन्तर गति से चलता रहा। समय के साथ ब्राह्मी लिपि से अनेक लिपियों का अविष्कार होना प्रारम्भ हुआ जिसके कारण समाज ने ब्राह्मी को भूलाना प्रारम्भ कर दिया। तथा फिर एक ऐसा समय आया जब कोई ब्राह्मी लिपि में लिखे अभिलेखों को भी नहीं पढ़ पा रहा था। ब्राह्मी लिपि को पढने के अनेक प्रयास किये है वह इस प्रकार है-
१. फिरोजशाह तुगलक एवं अकबर ने अशोककालीन अभिलेखों को पढने का प्रयास किया था। कहा जाता है कि अकबर को पण्डितों ने अभिलेखों का अर्थ भी बताया था जो केवल धनराशी का लालच मात्र था अर्थात् गलत अर्थ बताया था जिसमें शाहनशाह की प्रसंशा का उल्लेख बताया गया।
२. १७८४ में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना से अभिलेखों के पढने का सूत्रपात हुआ।
३. १७८५ में विल्किंस ने बंगाल के राजा नारायणपाल के बदाल-अभिलेख को पढा था।
४. १७८५ में ही राधाकान्त शर्मा ने विग्रहराज चतुर्थ (बिसलदेव) के ३ अभिलेखों को पढकर एक नये कार्य का सूत्रपात किया।
५. एच.एच. हैस्ग्टिंन को बुद्धगया के समीप बराबर नागार्जुनी गुफाओं से परवर्ती गुप्तकालीन ब्राह्मी में अभिलेख प्राप्त हुए, जिन्हें विल्किंस ने १७८९ में पढा।
६. अब तक केवल उत्तर भारत की लिपियों का अध्ययन निरन्तर चल रहा था लेकिन १९ वीं सदी के प्रारम्भ में दक्षिण लेखों को पढने का सार्थक प्रयास होने लगा। दक्षिण भारत की लिपियों के पढने का श्रेय बैंबीगटन को है। इसने सर्वप्रथम संस्कृत तथा तमिल लेखों के आधार पर अक्षरों की एक सारणी तैयार की थी।
७. इसके उपरान्त १८३३ में वाल्टर एलियट ने प्राचीन कन्नडी की वर्णमाला तैयार की।
८. १८१८-२३ में जेम्स टोड ने राजपूताना के इतिहास का अन्वेषण किया। ७-१५ वीं शताब्दी राजपूतान व काठियावाड़ के अनेक अभिलेखों का पता लगाया व यतिज्ञानेन्द्र की सहायता से अनेक लेखों का अनुवाद किया।
९. १८२८ में बी. जी. बैरिंग्टन ने ममिल्लपुर से प्राप्त संस्कृत–तमिल अभिलेखों को पढा तथा उनकी वर्णमाला तैयार की।
१०. १८३४ में कैप्टन ट्रायर ने समुद्रगुप्त की इलाहबाद प्रशस्ति के कुछ अक्षर पढे़।
११. डॉ. मील ने १८३७ में भिटारी के स्तम्भ से स्कन्दगुप्त का लेख पढा।
१२. १८३५ में डब्ल्यू. एच. विल्सन ने भी गुजरात से प्राप्त वलभी वंश के दान पात्रों को पढा।
१३. १८३७ में हार्कनेस ने Ancient and Modern Alphabets of the popular Hindu Languages of the Southern peninsula of India नामक पुस्तक लिखी है।
१४. ब्राह्मी को पढने का प्रथम प्रयास किया विल्फोर्ड ने किया जब उन्हें इलोरा गुफा के छोटे- छोटे अभिलेखों की छापे मिली। यह प्रयास अन्ततः असफल रहा।
१५. १८३७-३८ में जेम्स प्रिंसेप ने दिल्ली, कहाऊँ और एरण के स्तम्भ, साँची व अमरावती के स्तूपों तथा गिरनार के गुप्तकालीन लेख पढे़। प्रिंसेप ने अपने ५० वर्षों के कठीन परिश्रम से एक वर्णमाला तैयार की। उन्होंने साथ ही १८०० वर्षों में होने वाले अक्षरों के परिवर्तनों का एक चार्ट तैयार किया जिसे Modifications of the Sanskrit Alphabet from 528 B.C. to A.D. 1200 नाम दिया। उनकी वर्णमाला का सभी लिपिवेत्ताओं ने स्वागत किया परन्तु उ तथा ओ को लेकर कुछ विद्वानों का मतभेद था।
१६. प्रिंसेप ने इलाहबाद, रधिया-मथिआ तथा दिल्ली के अभिलेखों के अक्षरों की सर्वप्रथम पहचान की।
१७. १८३६ में लेसन ने बैक्ट्रियन-ग्रीक सिक्के पर अँगथाँक्टिस राजा का नाम पढा।
१८. १८३० में जनरल वेंटुरा ने मानिकियाल के स्तूप को खुदवाया।
१९. १८७४ में बर्नेल ने Elements of south Indian palaeography (from the 4th to the 14th century A.D.) being an Introductions to the study of south Indian Inscriptions and manuscripts नामक पुस्तक लिखी है।
२०. १८७७ में कनिंघम ने अशोक के अभिलेखों का प्रकाशन करवाया।
२१. १८७८ में साल फ्लीट ने गुप्तकालीन अभिलेखों का प्रकाशन करवाया।
२२. ब्राह्मी के अभिलेखों के अध्ययन के कार्य को १९ शदी के अन्त में ब्यूलर, ओझा, हुल्स तथा हर्नले आदि ने आगे बढाया।
२३. ब्राह्मी वर्णमाला का क्षेत्रीय विभाजन हुल्श ने किया है।
२४. ब्राह्मी वर्णमाला में सर्वप्रथम “ङ” वर्ण की पहचान ग्रियर्सन ने की।
२५. ब्राह्मी वर्णमाला में सर्वप्रथम “ऊ” तथा “श” वर्ण की पहचान कनिंघम ने की।
२६. ब्राह्मी वर्णमाला में सर्वप्रथम “ष” वर्ण की पहचान सेनार तथा हार्नेल ने की।
२७. ब्राह्मी वर्णमाला में सर्वप्रथम “ळ” वर्ण की पहचान ब्यूलर ने की।
5. ब्राह्मी अभिलेखों के क्षेत्र- ब्राह्मी लिपि को सार्वदैशिक लिपि का सम्मान प्राप्त है। अखण्ड भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ब्राह्मी के अभिलेख प्राप्त है। जहाँ अशोक कालिन अभिलेखों का क्षेत्र सम्पूर्ण भारत के साथ पाकिस्तान, नेपाल, भूटान अफगानिस्तान आदि स्थानों तक था। भारत के सभी स्थानों पर ब्राह्मी भाषा को समान सम्मान प्राप्त था परन्तु उत्तर भारत में इसका प्रचार अधिक रहा है। गुप्तकाल तक ब्राह्मी ने दक्षिण में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था।
6. ब्राह्मी अभिलेखों का समय- ब्राह्मी अभिलेखों का समय निर्धारण एक अत्यन्त कठिन कार्य है क्योंकि हमें छठी ई. पू से पहले के ब्राह्मी अभिलेख प्राप्त नहीं है परन्तु हम वस्तु के प्राप्त न होने पर उसकी विद्यमानता पर कोई आक्षेप नहीं कर सकते है। यदि हम अशोक-कालिन ब्राह्मी पर चर्चा करें तो यह सोचना का विषय होगा कि उस ब्राह्मी को उन्नत रूप देने के लिये कई वर्षों का समय अवश्य व्यतित हुआ होगा। अतः ब्राह्मी अभिलेखों का समय छठी ई.पू. से लेकर आठवीं शदी स्वीकार किया जा सकता है
7. ब्राह्मी अभिलेख एवं इतिहास- इतिहास की गुत्थी को बिना अभिलेखों की सहायता सुलझाना अत्यन्त कार्य रहा है जब तक हम अशोक कालिन अभिलेख नहीं पढ पाये तब तक अशोक को कोई नहीं जानता था। कुछ स्थानों पर अशोक का प्रसंग अवश्य प्रस्तुत होता था परन्तु वहाँ अशोक का नकारात्मक पक्ष ही दिखाई देता था। इतिहास को समझने में इन अभिलेखों विशेष स्थान रहा है। अभिलेखों में तिथि और संवत् लिखने की प्रथा धीरे-धीरे प्रचलित हुई। प्रारंभ में भारत में स्थायी एवं क्रमबद्ध संवतों के अभाव में राजाओं के शासनवर्ष से तिथि गिनी जाती थी। फिर कतिपय महत्वाकांक्षी राजाओं और शासकों ने अपनी कीर्ति स्थायी करने के लिए अपने पदासीन होने के समय से संवत् चलाया जो उनके बाद भी प्रचलित रहा। फिर महान घटनाओं और धर्मप्रवर्त्तकों एवं संत महात्माओं के जन्म अथवा निधनकाल से भी संवतों का प्रवर्तन हुआ। फलस्वरूप अभिलेखों में इनका प्रयोग होने लगा। तिथियों के अंकन में दिन, वार, पक्ष, मास और संवत् का उल्लेख पाया जाता है। अतः इस प्रकार अभिलेख तिथि निर्धारक है।
8. अभिलेखों की विशेषता-
१. ब्राह्मी अभिलेखों में पशु-वध एवं समारोहों पर अनावश्यक खर्च की निंदा की है।
२. इन अभिलेखों में जीते हुए प्रदेशों की सूचना दी गई है।
३. धर्मानुशासन एवं आचार की सामान्य बातों का उल्लेख किया गया है।
४. राजा के कर्त्तव्य पालन की बातों का वर्णन हैं।
५. विहार यात्रा, धर्म यात्रा पर सम्राट् का संकल्प आदि का विवरण।
६. सभी धर्मों के सम्मान हेतु उपदेश दिया गया है।
७. अशोक के अभिलेखों में अभिलेख धम्मलिपि सम्बोधित किया है क्योंकि इसके अधिकांश अभिलेख धार्मिक चर्चा करते है।
८. कुमारगुप्त और बन्धुवर्मा का मन्दसोर प्रस्तर अभिलेख व्यापारिक अभिलेख है।
९. तान्त्रिक शिक्षा हेतु भी ब्राह्मी अभिलेख विद्यमान थे, इन लेखों में छिद्र होते थे जिनमें रस्सी के माध्यम से गले अथवा हाथ पर बांध दिया जाता था। इनका आकार छोटा होता था।
१०. अशोक के अभिलेखों में उसने महामात्रों को सम्बोधित किया है।
११. रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शनझील के निर्माण का इतिहास है तथा रुद्रदामन का यह दृष्टिकोण ज्ञात होता है कि जनता से लिया गया कर ही जनता के उपयोगी तथा हित में आना चाहिए।
१२. इन अभिलेखों में समाज की सुव्यवस्था हेतु अधिकारियों को आदेश दिया गया है। हर्ष के बाँसखेडा अभिलेख में तत्कालीन अधिकारियों को आदेश दिया गया है। इसी प्रकार पूना ताम्रपत्र अभिलेख प्रभावती का है।
१३. ब्राह्मी अभिलेखों में प्रशस्ति अभिलेखों की संख्या अधिकाधिक है इसमें हरिषेण प्रशस्ति, मेहरौली का चन्द्र अभिलेख आदि। अशोक का १३ वाँ शिलालेख भी इसी कोटि में परिगणित किया जा सकता है।
१४. ब्राह्मी अभिलेखों में समर्पणात्मक अभिलेख भी प्राप्त है जिनमें इन अभिलेखों को धर्मानुयायियों को समर्पित किया गया है। पिपरहवाँ का धातु पात्र लेख गौतम बुद्ध के धातु विशेष के समर्पण का उल्लेख करता है। अशोक का वराबर पहाडियों का लेख , दशरथ का नागार्जुनी गुफाओं का लेख, कनिष्क का मथुरा अभिलेख, उषवदत्त का नासिक अभिलेख आदि अभिलेख समर्पण तथा दान की भावना से लिखे गये है।
१५. इन अभिलेखों का प्रयोग स्मृतियों हेतु भी किया जाता था। रूम्म्नदेई नामक ग्राम में अशोक का एक अभिलेख है। इस पर अंकित है “हिद बुद्ध जाते साक्यमुनीति”। इसका अभिप्राय है कि बुद्ध भगवान के जन्म स्थान पर उनके जन्म की स्मृति में यह अभिलेख अंकित कराया गया है।
१६. इन अभिलेखों में साहित्य का उतार-चढाव और साथ ही किसी साहित्यिक अवयव के सम्बन्ध में सिद्धान्तों का प्रतिपादन मिलता है। ऐसे साहित्यिक अभिलेखों में नाटक, काव्य, संगीत तथा धार्मिक विवरण प्रचुर मात्रा मे मिलते है। इस प्रकार का ललित विग्रहराज नामक अभिलेख अजमेर से प्राप्त है। तमिलनाडु से एक ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसे संगीत शास्त्र का ग्रन्थ कहा जाता है।
वे पुरातात्विक साक्ष्य जो शिलाओं, शिला स्तम्भों (पत्थर स्तम्भ) या पर्वतों में गुहा (गुफा) बनाकर, मुद्राओं, पात्रों आदि लिखे गये थे या उन पर चित्र उत्कीर्ण किये गये थे, जिनसे प्राचीन इतिहास और संस्कृति का पता चलता है, वे अभिलेख कहलाते हैं। वर्तमान समय में अभिलेख प्राचीन इतिहास को जानने का मुख्य स्रोत हैं। इस प्रकार ब्राह्मीभाषा के अभिलेख अपनी प्राचीनता तथा संख्या की दृष्टि में अग्रणी है। इनमें धार्मिक चर्चा के साथ राज्य की व्यवस्था, तथा तात्कालीन समाज का उल्लेख प्राप्त है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
14 comments
Click here for commentsNice bro
Reply🙏
ReplyGood information
ReplyBhut bacha
ReplyNice information
ReplyWahhhh mitra adbhut ❤️👌🏼👍
Replyअति उत्तम बलराम जी
Replyसुन्दर प्रयास मित्र! ऐसे ही अपनी लेखनी को निरन्तरता देते रहो।
ReplyGood work
ReplyAll the best👍💯👏👏
very nice Balram....Expression of highest thoughts.....keep it up😊👍
ReplyNice
ReplyVery much informative article... 👍
ReplyThis article has increased my information about Brahmi script thanku so much dear 👍
Replyअति उत्तम
Replyif any question, you can comments.... ConversionConversion EmoticonEmoticon