संधान काव्य

संधान काव्य

काव्य परम्परा में जो आचार्य काव्य के मध्य में श्लेष का प्रयोग करते है उन्हें पाठक उत्कृष्ट श्रेणी में रखा करते हैं। यह सत्य है कि किन्हीं दो या दो से अधिक भावों को एक ही शब्द में समेटना अत्यन्त जटिल कार्य होता है। ऐसी रचना के लिए मस्तिष्क में शब्दकोश की पूर्णता अनिवार्य होती है। लेकिन आपको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि संस्कृत में ऐसे अनेक विद्वान् हुए जिन्होंने न केवल काव्य के मध्य में श्लेष का प्रयोग किया बल्कि ऐसे भी काव्य लिखे है जो सम्पूर्ण श्लेष पर आधारित है।

काव्य-परम्परा में इन काव्यों को संधान के नाम से जाना जाता है। इसकी चर्चा करते हुए प्रथम संधान पद को समझ लेना आवश्यक है। संधान शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक धा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निर्मित हुआ है। संस्कृत वाङ्मय में संधान शब्द से अनेक अर्थों का ग्रहण किया जात है। यहाँ संधान काव्य के संदर्भ में मुख्यतः तीन अर्थों का ग्रहण कर सकते है। प्रथम संप्रयोगम् अर्थात् ऐसे ग्रन्थ जिनका प्रयोग सम्यग्रूपेण किया गया हो। द्वितीय शब्द है सन्निधानम्, यह भी प्रायः संप्रयोग के समान अर्थ देता है। इसके अतिरिक्त तीसरा अर्थ है धनुषिबाणयोजनम् अर्थात् धनुष में बाण की योजना। प्रसंगवश बाहुबली चलचित्र का वह दृश्य याद आ रहा है जिसमें एक धनुष से एक ही बार में दो से अधिक बाणों का संधान किया जाता है। अतः यह ग्रन्थ भी कुछ इसी प्रकार की विशेषता रखता है। अर्थात् संधान काव्य में एक से अधिक अर्थों का ग्रहण किया जाता है। इन संधान काव्यों से दो, तीन या उससे अधिक अर्थ होने से इसके प्रकार भी अनेक है। संस्कृत काव्य परम्परा में राघवपाण्डवीयम् काव्य अत्यन्त प्राचीन है। इस काव्य में संधान काव्य की प्रकृति को परिभाषित किया है-

प्रायः प्रकरणैक्येन विशेषेण-विशेष्ययोः।

परिवृत्त्या क्वचित्तद्वदुपमानोपमेययोः॥

क्वचित्पदैश्च नानार्थे क्वचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः।

विधास्यते मया काव्य श्री रामायणभारतम्॥

कवि का आशय स्पष्ट है कि उसने कैसे रामायण तथा महाभारत की कथाओं को उपर्युक्त विधियों से एक ग्रन्थ ही ग्रन्थ में पिरोया है।

संस्कृत की काव्य परम्परा हमेशा से  नये-नये अविष्कार करती आ रही है। संस्कृत इतिहास पढने से ज्ञात होता है कि यहाँ ऐसे संधान काव्यों की भी रचना हो चुकी है जो शताधिक अर्थ प्रदान करते है। एक प्रसिद्ध उदाहरण है- “राजानो ददते सौख्यम्” इस वाक्य की ८ लाख प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे पास ऐसे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। पुनरपि जो कुछ प्राप्त संधान ग्रन्थ है उनको इस प्रकार देख सकते है।

प्राप्त संधान काव्यों में द्विसंधान काव्यों की संख्या सबसे अधिक है। इसके अतिरिक्त कुछ आचार्यों के त्रिसंधान तथा सप्तसंधान काव्यों भी प्राप्त होते है। जो इस प्रकार हैं-

१.    राघवपाण्डवीयम्- यह धनञ्जय की कृति है। प्राप्त द्विसंधान काव्यों में सबसे सफल प्रयास इसी काव्य में प्राप्त होता है। इसकी प्राचीनता भी सर्वोपरी है। इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध है। इसमें रामायण तथा महाभारत दोनों ग्रन्थों की कथा है।

२.    नेमिनाथचरितम्- यह रचना सूराचार्य की है जो १२ सदी में लिखी गई थी। इसमें ऋषभ तथा नेमि की कहानी साथ-साथ चलती है।

३.    रामपालचरितम्- इस काव्य को सान्ध्याकरनन्दी ने लिखा है। इसमें नायक के साथ राजा रामपाल की कहानी बताई है।

४.    नाभेयनेमिकाव्य- इसकी रचना हेमचन्द्रसूरी ने की है। इसमें ऋषभ तथा नेमि की कहानी है।

५.    राघवपाण्डवीयम्- यह माधवभट्ट की कृति है। माधवभट्ट को पण्डित या सूरी के नाम से जाना जाता था।

६.    राघवनैषधीयम्- इस काव्य को हरदत्त ने लिखा है। इसमें राम तथा नल की कथा है।

७.    पार्वतीरुक्मणीयम्- यह किसी अज्ञात कवि की रचना है। इसमें पार्वती तथा रुक्मणी की कथा है।

ये सभी प्रसिद्ध द्विसंधान काव्य है। इसके अतिरिक्त चिदम्बर नामक कवि ने त्रिसंधान काव्य की रचना की है। इसका नाम राघवपाण्डवयादवीयम् है। इसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की कथा है।  कवि शान्तिरक्षित ने पंचसंधान काव्य की रचना की है। इससे भी बढकर सप्तसंधान काव्य भी उपलब्ध है जिसे मेघविजय उपाध्याय कवि ने लिख है। इसमें ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, राम तथा कृष्ण की कथा को एक साथ निबद्ध किया है। इसके अतिरिक्त ऐसे भी काव्यों का प्रणयन हुआ जो द्विसंधान काव्य के अन्तर्गत आते है परन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे सीधे पढने पर एक कथा कहते है तो उलटा पढने पर दूसरी कथा कहते है। इसका उदाहरण वेंकटाध्वरिन् का यादवराघवीयम् है।

अतः इस प्रकार संस्कृत काव्य परम्परा में व्यापकरूप से संधान काव्यों की रचना होती रही है।

 

धन्यवाद !

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1 comments:

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Unknown
admin
4 जून 2020 को 12:54 pm बजे ×

Bahut accha
Aap hm log ko nya gyan upalabdh kra rhe h
Aapko bahut bahut dhanyawad

Congrats bro Unknown you got PERTAMAX...! hehehehe...
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