क्या लेखन एक दैविक-कला है ?

लेखन अर्थात् लिखने की कला, प्रश्न यह है कि लेखन कला भारत ने स्वयं सिखी या किसी अन्य देश का सहारा लेकर हम इसका प्रयोग कर रहे है। केवल लेखन ही नहीं बल्कि ऐसी अनेक चिजें है जिनपर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। भारत हमेशा से ज्ञान का प्रकाशपुञ्ज रहा है। इस धरा में अनेक विद्याओं ने जन्म ही न लिया बल्कि यहाँ से अन्य प्रदेशों में भी प्रकाश फैलाया है। परन्तु दुर्भाग्य की बात है कि आज हमें अन्य लोगों से सिखना पडता है इतना ही नहीं हमारे ज्ञान को उनका मानकर हम अपने आप को उनके ऋणी समझ रहे है। परन्तु यह स्पष्ट मिथ्या प्रचार है। आज आवश्यकता है अपने ज्ञान को दुनिया तक पहुँचाने की। 
भारत में लेखन का उद्भव या विकास को लेकर एक बडी बहस निरन्तर चली आ रही है। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक कला है जो भगवान की देन है और ये किसी एक प्रदेश में न होकर अलग-अलग स्थानों पर हुई है। लेखन-कला का सम्बन्ध सीधा दैविक शक्ति से माना जाता है यह परम्परा भारत ही नहीं अपितु अन्य सभ्यताओं में भी दिखाई देती है।  भारत में इसे ब्रह्मा के द्वारा दी गई कला स्वीकार किया जाता है। इसके उदाहरण में बादामी का प्रस्तरखण्ड है। बादामी से ई. ५८० ई में प्रस्तर खण्ड प्राप्त हुआ उसमें ब्रह्मा का चित्र बना है। उस चित्र में ब्रह्मा के हाथ में ताडपत्रो का एक समूह है। चीनी विश्वकोश फा-वान-शू-लिन में लिखा है कि भारत में ब्रह्मा ने एक ऐसी लिपि का अविष्कार किया था जो बायें से दायें लिखी जाती थी। इसी प्रकार अन्य सभ्यताओं का भी मानना है कि लेखन एक दैविक कला है- प्राचीन मिश्रवासियों ने लेखन का जन्मदाता या तो थौथ को माना है जिसने प्रायः सभी सांस्कृतिक तत्त्वों का अविष्कार किया था या यह श्रेय आइसिस को दिया है। बेबीलोनवासी माईक पुत्र नेवो नामक् देवता को लेखन का अविष्कारक मानते है। एक प्राचीन यहूदी परम्परा में मूसा को लिपि का निर्माता माना गया है। यूनानी पुराणगाथा में हर्मीज नामक देवता को लेखन के देवता का श्रेय दिया।

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